आयुवृद्धि के साथ शरीर में होने वाले परिवर्तन

इनके द्वाराRichard G. Stefanacci, DO, MGH, MBA, Thomas Jefferson University, Jefferson College of Population Health
समीक्षा की गई/बदलाव किया गया अप्रैल २०२४

आयुवृद्धि के साथ शरीर परिवर्तित होता है क्योंकि परिवर्तन प्रत्येक कोशिका और सभी अंगों में घटित होते हैं। इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप क्रिया और रूप में परिवर्तन आते हैं।

(आयुवृद्धि का विवरण भी देखें।)

कोशिकाओं की आयुवृद्धि

जैसे-जैसे कोशिकाओं की आयु बढ़ती है, वैसे-वैसे वो कम अच्छी तरह से काम करती हैं। अंततः, पुरानी कोशिकाओं को मरना होता है, जो कि शारीरिक क्रियाशीलता का एक सामान्य भाग है।

पुरानी कोशिकाएं कभी-कभी इसलिए मरती हैं क्योंकि वे ऐसा करने के लिए क्रमादेशित होती हैं। कोशिकाओं के जीन किसी प्रक्रिया को क्रमादेशित करते हैं जिसके, सक्रिय होने पर, परिणामस्वरूप कोशिका की मृत्यु हो जाती है। यह क्रमादेशित मृत्यु, जिसे एपॉप्टॉसिस कहा जाता है, एक प्रकार की कोशिका आत्महत्या होती है। कोशिका की आयु बढ़ना एक प्रेरक है। नई कोशिकाओं के लिए जगह बनाने हेतु पुरानी कोशिकाओं को मरना होता है। अन्य प्रेरकों में कोशिकाओं की अधिक संख्या और संभवत: कोशिका का क्षतिग्रस्त होना शामिल है।

पुरानी कोशिकाएं इसलिए भी मर जाती हैं क्योंकि वे एक सीमित संख्या में ही विभाजित हो सकती हैं। यह सीमा जीन द्वारा क्रमादेशित की जाती है। जब कोशिका और अधिक विभाजित नहीं हो सकती, तो उसका आकार बढ़ जाता है, और वह थोड़े समय तक ही जीवित रहती है, और फिर वह मर जाती है। कोशिका विभाजन को सीमित करने वाली क्रियाविधि में टीलोमीयर नामक एक संरचना होती है। टीलोमीयर का उपयोग कोशिका विभाजन की तैयारी में कोशिका की आनुवंशिक सामग्री को स्थानांतरित करने के लिए किया जाता है। हर बार जब कोशिका विभाजित होती है, तो इसके टीलोमीयर थोड़े छोटे होते जाते हैं। आखिरकार, टीलोमीयर इतने छोटे हो जाते हैं कि कोशिका फिर और विभाजित नहीं हो पाती। जब कोशिका विभाजित होना बंद हो जाती है, तो इसे जीर्णता कहा जाता है।

कभी-कभी किसी कोशिका का क्षतिग्रस्त होना सीधे उसकी मृत्यु का कारण बनता है। कोशिकाओं को हानिकारक पदार्थों, जैसे रेडिएशन, सूर्य के प्रकाश और कीमोथेरेपी की दवाओं से क्षति पहुंच सकती है। कोशिकाएं अपनी खुद की सामान्य गतिविधियों के कुछ उप-उत्पादों से भी क्षतिग्रस्त हो सकती हैं। ये उप-उत्पाद, जिन्हें फ़्री रेडिकल कहा जाता है, कोशिकाओं के द्वारा ऊर्जा उत्पन्न किए जाने पर निकलते हैं।

क्या आप जानते हैं...

  • क्रिया की अधिकांश हानि विकारों के कारण होती है, न कि आयुवृद्धि के कारण।

अंगों की आयुवृद्धि

अंग कितनी अच्छी तरह कार्य करते हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनमें मौजूद कोशिकाएं कितनी अच्छी तरह कार्य करती हैं। पुरानी कोशिकाएं कम अच्छी तरह कार्य करती हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ अंगों में, कोशिकाएं मरने पर नई कोशिकाएं उनकी जगह नहीं लेती, जिससे कोशिकाओं की संख्या कम हो जाती है। शरीर की आयु बढ़ने के साथ-साथ वृषण, अंडाशयों, लिवर और गुर्दों में कोशिकाओं की संख्या अत्यधिक घट जाती है। जब कोशिकाओं की संख्या बहुत कम हो जाती है तब अंग सामान्य रूप से कार्य नहीं कर पाता। इसलिए, लोगों की आयु बढ़ने के साथ अधिकांश अंग ठीक से कार्य नहीं करते। हालांकि, सभी अंग बड़ी संख्या में कोशिकाओं को नहीं खोते। इसका एक उदाहरण मस्तिष्क है। स्वस्थ वयोवृद्ध वयस्क में मस्तिष्क कोशिकाओं को बहुत कम नुकसान होता है। बहुत अधिक कमी मुख्य रूप से उन लोगों में होती है जिन्हें आघात हुआ है जो किसी ऐसे विकार से ग्रस्त हैं जिससे तंत्रिका कोशिकाएं लगातार बढ़ती जाती हैं (न्यूरोडीजेनेरेटिव विकार), जैसे अल्ज़ाइमर रोग या पार्किंसन रोग

प्राय:, आयुवृद्धि के प्रथम लक्षण मस्कुलोस्केलेटल सिस्टम में दिखाई देते हैं। मध्य-आयु के प्रारंभिक दौर में आँखों, और फिर कानों में परिवर्तन आने शुरु हो जाते हैं। अधिकांश आंतरिक क्रियाएं भी आयुवृद्धि के साथ कम सक्रिय होती जाती हैं। अधिकांश शारीरिक क्रियाएं 30 वर्ष की आयु से कुछ समय पहले तक अपने चरम पर होती है और फिर उनमें धीरे-धीरे लेकिन लगातार गिरावट आना शुरू हो जाती है। हालांकि, इस गिरावट के आने पर भी, अधिकांश क्रियाएं पर्याप्त रूप से सक्रिय रहती हैं क्योंकि अधिकांश अंग, शरीर को जितनी क्रियाशीलता की आवश्यकता होती है उससे कहीं अधिक क्रियाशीलता के साथ क्रिया करना शुरू करते हैं (क्रियात्मक क्षमता संचय)। उदाहरण के लिए, यदि लिवर का आधा भाग नष्ट हो गया है, तो सामान्य क्रिया को बनाए रखने के लिए उसमें बचे हुए ऊतक पर्याप्त मात्रा से अधिक होते हैं। इसलिए, वृद्ध आयु में क्रियाशीलता में अधिकांश कमी आमतौर पर, आयुवृद्धि की बजाय, विकारों के कारण आती है।

हालांकि अधिकांश क्रियाएं पर्याप्त रूप से सक्रिय रहती हैं, लेकिन क्रियाशीलता में कमी का अर्थ है कि वयोवृद्ध वयस्क, कठोर शारीरिक गतिविधि, वातावरण में अत्यधिक तापमान परिवर्तन और विकारों सहित, विभिन्न तनावों का सामना करने में सक्षम नहीं होते। इस कमी का अर्थ यह भी है कि वयोवृद्ध वयस्क में दवाओं के दुष्प्रभावों का अनुभव होने की अधिक संभावना है। तनाव में दूसरे अंगों की अपेक्षा कुछ अंगों के खराब क्रिया करने की अधिक संभावना होती है। इन अंगों में हृदय और रक्त वाहिकाएं, मूत्रीय अंग (जैसे किडनी), और मस्तिष्क शामिल हैं।

हड्डियां और जोड़

(मस्कुलोस्केलेटल सिस्टम पर भी आयुवृद्धि के प्रभाव भी देखें।)

हड्डियां अक्सर कम सघन होती जाती हैं। हड्डी के घनत्व में मामूली सी कमी आने को ऑस्टियोपेनिया कहा जाता है और हड्डी के घनत्व में अत्यधिक कमी आने (हड्डी का घनत्व कम हो जाने के कारण फ्रैक्चर होना शामिल है) को ऑस्टियोपोरोसिस कहा जाता है। ऑस्टियोपोरोसिस में, हड्डियां पहले से अधिक कमजोर हो जाती हैं और उनके टूटने की अधिक संभावना होती है। महिलाओं में, हड्डियों का घनत्व कम होने की प्रक्रिया रजोनिवृत्ति के बाद तेज़ हो जाती है क्योंकि इसमें एस्ट्रोजेन का उत्पादन कम होने लगता है। एस्ट्रोजेन शरीर की हड्डी बनने, टूटने, और फिर से बनने की सामान्य प्रक्रिया के दौरान हड्डी को बार-बार टूटने से रोकने में मदद करता है।

हड्डियां कम कैल्शियम (जो ह्ड्डियों को ताकत देता है) होने के कारण आंशिक रूप से कम सघन हो जाती हैं। शरीर में कैल्शियम की मात्रा इसलिए कम हो जाती है क्योंकि शरीर खाद्य पदार्थों से कम कैल्शियम शोषित करता है। इसके अतिरिक्त, शरीर में कैल्शियम का उपयोग करने में मदद करने वाले विटामिन D के स्तर भी थोड़े कम हो जाते हैं। कुछ हड्डियां अन्य हड्डियों की अपेक्षा अधिक कमजोर हो जाती हैं। उनमें जो सबसे अधिक प्रभावित होती हैं वह हैं कूल्हे के पास स्थित जांघ की हड्डी का सिरा (फ़ीमर), कलाई के पास स्थित बांह की हड्डियों के सिरे (रेडियस और उल्ना), तथा रीढ़ की हड्डी (वर्टिब्रा)।

रीढ़ की हड्डी के शीर्ष पर स्थित वर्टिब्रा में होने वाले परिवर्तनों के कारण सिर आगे की और झुक जाता है, जिससे गले पर दबाव पड़ता है। परिणामस्वरूप, निगलने में अधिक कठिनाई होती है, और दम घुटने की अधिक संभावना होती है। वर्टिब्रा की सघनता कम हो जाती है और उनके बीच स्थित ऊतक की गद्दियों (डिस्क) में द्रव कम हो जाता है और वे पतली हो जाती हैं, जिनसे हड्डी और छोटी हो जाती है। इसलिए, वयोवृद्ध वयस्क का कद कम हो जाता है।

जोड़ों पर लगा कार्टिलेज पतला होने लगता है, आंशिक रूप से ऐसा लंबे समय से जोड़ों को हिलाने डुलाने से हुई टूट-फूट के कारण होता है। जोड़ों की सतह पहले की तरह उतनी अच्छी तरह से एक-दूसरे पर फिसल नहीं पातीं, इससे जोड़ में चोट लगने की संभावना थोड़ी अधिक हो सकती है। जोड़ों का आजीवन उपयोग करने या बार-बार चोट लगने के कारण कार्टिलेज में हुई क्षति की वजह से अक्सर ऑस्टियोआर्थराइटिस हो जाता है, जो वृद्धावस्था में होने वाले सबसे आम विकारों में से एक है।

लिगामेंट, जो जोड़ों को एक-दूसरे से बांधे रखते हैं, तथा टेंडन, जो मांसपेशी को हड्डी से बांधे रखते हैं, उनमें लचीलापन कम हो जाता है, जिससे जोड़ों में कसाव और जकड़न होने लगती है। ये ऊतक कमजोर भी हो जाते हैं। इसलिए, अधिकांश लोगों में लचीलापन कम हो जाता है। लिगामेंट और टेंडन अक्सर अधिक आसानी से टूट जाते हैं, और जब वे टूटते हैं, तो वे बहुत धीरे-धीरे ठीक होते हैं। ये परिवर्तन लिगामेंट और टेंडन का रखरखाव करने वाली कोशिकाओं के कम सक्रिय होने के कारण होते हैं।

मांसपेशियां और शारीरिक वसा

मांसपेशीय ऊतक की मात्रा (मांसपेशी द्रव्यमान) और मांसपेशी की ताकत 30 वर्ष की आयु के आसपास कम होना शुरू हो जाती है और जीवन भर जारी रहती है। इनमें कुछ कमी शारीरिक निष्क्रियता के कारण तथा मांसपेशियों के विकास को प्रेरित करने वाले वृद्धि हार्मोन और टेस्टोस्टेरॉन के घटते स्तरों के कारण आती है। इसके अतिरिक्त, मांसपेशियों मे इतनी तीव्रता से संकुचन नहीं हो पाता क्योंकि धीमी गति से संकुचित होने वाले (स्लो-ट्विच) मांसपेशी तंतुओं की अपेक्षा तेज़ी से संकुचित होने वाले (फ़ास्ट-ट्विच) मांसपेशी तंतु नष्ट हो जाते हैं। हालांकि, एक वयस्क व्यक्ति के जीवनकाल के दौरान आयुवृद्धि के प्रभाव मांसपेशी द्रव्यमान और ताकत को लगभग 10 से 15% तक ही कम करते हैं, उससे अधिक नहीं। रोग की उपस्थिति न होने पर, उस 10 से 15% के बाद होने वाली कमी को नियमित व्यायाम से रोका जा सकता है। मांसपेशियों की अधिक गंभीर हानि (सार्कोपीनिया कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है मांस का कम हो जाना) केवल आयु बढ़ने से नहीं, बल्कि किसी रोग या अत्यधिक निष्क्रियता के परिणामस्वरूप भी होती है।

अधिकांश वयोवृद्ध वयस्क में सभी आवश्यक कार्यों के लिए पर्याप्त मांसपेशी द्रव्यमान और ताकत बनी रहती है। बहुत से वयोवृद्ध वयस्क ताकतवर एथलीट बने रहते हैं। वे खेल में मुकाबला करते हैं और सक्रिय शारीरिक गतिविधि का आनंद उठाते हैं। हालांकि, फिर भी सबसे तंदुरुस्त व्यक्ति को भी आयु बढ़ने के साथ कुछ गिरावट अनुभव होती है।

क्या आप जानते हैं...

  • प्रति दिन पूरी तरह से बेड रेस्ट पर होने के दौरान मांसपेशी द्रव्यमान की कमी को पूरा करने के लिए, वयोवृद्ध वयस्कों को लगभग 2 हफ़्तों तक व्यायाम करने की आवश्यकता हो सकती है।

मांसपेशियों को मज़बूत बनाने के लिए नियमित व्यायाम (प्रतिरोधकता वर्धक प्रशिक्षण) से मांसपेशी द्रव्यमान और ताकत कम होने की समस्या को आंशिक रूप से ठीक किया जा सकता है या इसे लंबे समय के लिए स्थगित किया सकता है। मांसपेशी को मज़बूत बनाने वाले व्यायाम में, मांसपेशियाँ गुरुत्वाकर्षण, वजन, या रबड़ बैंड से मिलने वाली प्रतिरोधकता के विरुद्ध संकुचित होती हैं (जैसे सिट-अप या पुश-अप में होता है)। यदि इस तरह का व्यायाम नियमित रूप से किया जाता है, तो जिन लोगों ने पहले कभी भी व्यायाम नहीं किया है वे भी अपना मांसपेशी द्रव्यमान और ताकत बढ़ा सकते हैं। इसके विपरीत, शारीरिक निष्क्रियता, विशेष रूप से बीमारी के दौरान बेड रेस्ट, इस हानि को अत्यधिक बढ़ा सकती है। निष्क्रियता के समय के दौरान, वयोवृद्ध वयस्क मांसपेशी द्रव्यमान और ताकत को युवा लोगों की अपेक्षा अधिक तेज़ी से खो देते हैं। उदाहरण के लिए, प्रति दिन पूरी तरह से बेड रेस्ट पर होने के दौरान मांसपेशी द्रव्यमान की कमी को पूरा करने के लिए, लोगों को लगभग 2 हफ़्तों तक व्यायाम करने की आवश्यकता हो सकती है।

युवावस्था के दौरान मौजूद शारीरिक वसा की तुलना में, 75 वर्ष की आयु तक शारीरिक वसा का प्रतिशत आमतौर पर दुगना हो जाता है। अत्यधिक शारीरिक वसा से स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं होने का खतरा बढ़ जाता है, जैसे डायबिटीज। वसा का विभाजन भी बदल जाता है, जो धड़ के आकार को बदल देता है। स्वस्थ आहार और नियमित व्यायाम से वयोवृद्ध वयस्क को शारीरिक फैट में वृद्धि को कम करने में मदद मिल सकती है।

आँखें

(आँखों पर आयुवृद्धि के प्रभाव भी देखें।)

लोगों की आयु बढ़ने के साथ-साथ, निम्नलिखित समस्याएं हो सकती हैं:

  • लेंस सख्त हो सकता है, जिससे पास की वस्तुओं पर ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई होती है।

  • लेंस सघन हो जाता है, जिससे कम रोशनी में देखने में कठिनाई होती है।

  • प्रकाश में बदलाव होने पर पुतली बहुत धीरे प्रतिक्रिया करती है।

  • लेंस पीला पड़ जाता है, जिससे रंगों को देखने का तरीका बदल जाता है और कंट्रास्ट पहचानने की क्षमता समाप्त हो जाता है।

  • तंत्रिका कोशिकाओं की संख्या कम हो जाती है, जो गहनता प्रत्यक्षण की क्षमता को विकृत कर देती है।

  • आँखों में द्रव का कम उत्पादन होता है, जिससे उनमें सूखापन लगता है।

नज़र में परिवर्तन आयुवृद्धि का अक्सर पहला न टलने वाला लक्षण होता है।

आँखों के लेंसों में होने वाले परिवर्तन, निम्नलिखित समस्याओं का कारण हो सकते हैं या इनमें इनका योगदान हो सकता है:

  • पास की नज़र का कम होना: अपने 40 के दशक के दौरान अधिकांश लोग अनुभव करते है कि उन्हें 2 फुट से कम दूरी पर रखी वस्तुओं को देखने में कठिनाई होती है। दृष्टि क्षमता में यह परिवर्तन, जिसे प्रेसबायोपिया कहा जाता है, आँखों का लेंस सख्त होने की वजह से होता है। सामान्यतः, लेंस आँख को फोकस करने में मदद करने के लिए अपना आकार बदलता है। सख्त लेंस से पास की वस्तुओं पर ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई होती है। अंततः, लगभग सभी लोगों को प्रेसबायोपिया होता है और उन्हें पास के चश्मे की ज़रूरत पड़ती है। जिन लोगों को दूर की वस्तुएं देखने के लिए चश्मे की ज़रूरत पड़ती है उन्हें वेरिएबल-फ़ोकस लेंस वाले बाइफ़ोकल या चश्मे पहनने की आवश्यकता हो सकती है।

  • अधिक तेज़ रोशनी की ज़रूरत: जैसे-जैसे लोगों की आयु बढ़ती जाती है, उनके लिए कम रोशनी में देखना अधिक कठिन होता जाता है क्योंकि लेंस कम पारदर्शी होने लगता है। सघन लेंस का अर्थ है कि लेंस से कम प्रकाश गुजरकर आँख के पीछे रेटिना तक पहुंचता है। इसके अतिरिक्त, रेटिना, जिसमें प्रकाश का अनुभव करने वाली कोशिकाएं होती हैं, कम संवेदनशील हो जाता है। अत: पढ़ने के लिए तेज़ रोशनी की ज़रूरत पड़ती है। औसतन, 60-वर्ष की-आयु के लोगों को 20 वर्ष की-आयु के लोगों की तुलना में 3 गुना अधिक रोशनी चाहिए होती है।

  • रंग बोध में परिवर्तन: रंगों को कोई अन्य रंग समझ लेना, आंशिक रूप से ऐसा आयु बढ़ने के साथ लेंस के पीले पड़ जाने के कारण होता है। रंग कम चमकीले दिख सकते हैं और विभिन्न रंगों के बीच के भेद को देखने में अधिक कठिनाई हो सकती है। नीले रंग अधिक ग्रे रंग के दिख सकते हैं, और ब्लू प्रिंट या पृष्ठभूमि फीके रंग के दिख सकते हैं। अधिकांश लोगों के लिए ये परिवर्तन महत्व नहीं रखते। हालांकि, वयोवृद्ध वयस्क को नीली पृष्ठभूमि पर प्रिंट किए हुए काले अक्षरों को पढ़ने में या नीले अक्षरों को पढ़ने में मुश्किल हो सकती है।

प्रकाश में बदलाव होने पर आँख की पुतली बहुत धीरे प्रतिक्रिया करती है। पुतली आसपास की रोशनी के आधार पर, अधिक या कम प्रकाश को ग्रहण करने के लिए फैलती और सिकुड़ती रहती है। धीरे प्रतिक्रिया करने वाली प्यूपिल का अर्थ है कि वयोवृद्ध वयस्क किसी अंधेरे कमरे में घुसते ही शायद कुछ भी न देख पाएं। या हो सकता है कि किसी अधिक रोशनदार कमरे में प्रवेश करते ही वे अस्थायी रूप से अंधे हो जाएं। वयोवृद्ध वयस्क तेज़ प्रकाश की चमक के प्रति भी अधिक संवेदनशील हो सकते हैं। हालांकि, तेज़ प्रकाश की चमक के प्रति बढ़ी हुई संवेदनशीलता का कारण अक्सर लेंस में कालापन आना या मोतियाबिंद होता है।

क्या आप जानते हैं...

  • पढ़ने के लिए 60-वर्ष की-आयु के अधिकांश लोगों को 20 वर्ष की-आयु के लोगों की तुलना में 3 गुना अधिक रोशनी चाहिए होती है।

रंगों की आभाओं और वर्णों में अंतर सहित, सूक्ष्म विवरण को समझना बहुत कठिन हो सकता है। इसका कारण संभवत: तंत्रिका तंत्र की उन कोशिकाओं की संख्या का कम होना है जो आँखों से मस्तिष्क को दृश्य के संकेत भेजती हैं। यह परिवर्तन, गहराई देखने के तरीके को दुष्प्रभावित करता है, जिससे दूरियों का अंदाज़ा लगाने में अधिक कठिनाई होती है।

वयोवृद्ध वयस्क को अपनी आँखों के आगे छोटे-छोटे काले धब्बे तैरते नज़र आ सकते हैं। ये धब्बे, जिन्हें फ़्लोटर्स कहा जाता है, आँख में सामान्य फ़्लूड पदार्थ के जमे हुए टुकड़े होते हैं। फ़्लोटर्स नि:संदेह नज़र में बाधा उत्पन्न नहीं करते। जब तक कि अचानक उनकी संख्या में वृद्धि नहीं होती, वे चिंता का कारण नहीं होते।

आँखें सूखने लगती हैं। यह परिवर्तन आँखों को चिकनापन देने के लिए फ़्लूड का उत्पादन करने वाली कोशिकाओं की संख्या कम होने के कारण होता है। आँसू निकलना कम हो सकते हैं।

आँखों की दिखावट में कई तरीकों से परिवर्तन आ जाता है:

  • आँखों के श्वेत भाग (स्कलेरा) हल्के से पीले या कत्थई रंग के हो सकते हैं। यह परिवर्तन कई वर्षों तक अल्ट्रावायलेट लाइट, हवा, और धूल में रहने के कारण आ सकता है।

  • आँखों के श्वेत भागों में अनियमित रूप से रंगीन धब्बे दिखाई दे सकते हैं विशेषकर काले रंग के लोगों में।

  • आँख की सतह पर एक ग्रे-सफ़ेद रंग का घेरा (आर्कस सेनिलिस) उत्पन्न हो सकता है। यह घेरा कैल्शियम और कोलेस्ट्रॉल सॉल्ट का बना होता है। इससे नज़र पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता।

  • नीचे की पलक नेत्रगोलक से दूर बाहर की ओर लटक सकती है क्योंकि आँख के आसपास की मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं और टेंडन में खिंचाव आ जाता है। यह स्थिति (जिसे एक्ट्रोपियन कहा जाता है) नेत्रगोलक को चिकनापन देने में बाधा उत्पन्न कर सकती है और इससे आँखों में सूखापन आ सकता है।

  • आँख के आसपास की चर्बी कम हो जाने के कारण आँख सिर में धंसी हुई सी दिख सकती है।

  • भौहें नीचे झुक जाती हैं।

कान

(कान, नाक, और गले पर आयुवृद्धि के प्रभाव भी देखें।)

श्रवण क्षमता में परिवर्तन जितने आयु वृद्धि के कारण आते हैं उतने ही जीवनभर में शोर के संपर्क में आने के कारण आते हैं (श्रवण क्षमता में कमी भी देखें)। समय के साथ तेज़ शोर के संपर्क में आने से कान की सुनने की क्षमता को क्षति पहुंचती है। इसके बावजूद, श्रवण क्षमता में कुछ परिवर्तन लोगों की आयु बढ़ने के साथ-साथ आते हैं, चाहे वे फिर तेज़ शोर के संपर्क में आते हों या न आते हों।

उम्र बढ़ने के साथ श्रवण क्षमता में कमी के जो कारण अधिक आम हो सकते हैं, उनमें कान में मैल (सेरुमेन) का जमा होना, कैंसर-रहित (मामूली) ट्यूमर (वेस्टिब्यूलर स्वानोमा) और कुछ दवाओं (जैसे एस्पिरिन या अमीनोग्लाइकोसाइड्स) का उपयोग शामिल हैं।

यह पता लगाने के लिए डॉक्टर को दिखाना ज़रूरी है कि कहीं श्रवण क्षमता में कमी सेरुमेन (कान का मैल) के जमाव की वजह से तो नहीं है क्योंकि कान के मैल को शीघ्रता से और सुरक्षित रूप से निकाला जा सकता है।

लोगों की आयु बढ़ने के साथ-साथ, उन्हें उच्च-तारत्व वाली ध्वनियां सुनने में अधिक कठिनाई होने लगती है। इस परिवर्तन को आयु-संबंधित श्रवण हानि (प्रीबाइकुसिस) माना जाता है। उदाहरण के लिए, वायलिन संगीत की ध्वनि कम अच्छी लग सकती है।

क्या आप जानते हैं...

  • जिन वयोवृद्ध वयस्क को बोलने समझने में परेशानी होती है उनसे बात करते समय तेज़ बोलने की बजाय व्यंजनों का स्पष्ट रूप से उच्चारण करना अधिक सहायक हो सकता है।

  • वयोवृद्ध वयस्क को विशेष रूप से तेज़ और ऊंची ध्वनियां सुनने में अधिक कठिनाई होती है।

प्रीबाइकुसिस का सबसे अधिक निराशाजनक परिणाम यह होता है कि इसमें शब्दों को समझना अधिक कठिन होता है। परिणामस्वरूप, वयोवृद्ध वयस्क को लगता है कि दूसरे लोग बड़बड़ा रहे हैं। यहां तक कि जब अन्य लोग अधिक तेज़ ध्वनि में बोलते हैं, वयोवृद्ध वयस्क को तब भी उनकी बात समझने में मुश्किल होती है। इसका कारण यह है कि अधिकांश व्यंजन (जैसे k, t, s, p, और ch) उच्च-तारत्व के होते हैं, और व्यंजन वे ध्वनियां होती हैं जो लोगों को शब्द पहचानने में मदद करती हैं। चूंकि स्वर निम्न-तारत्व के होते हैं, इसलिए उन्हें सुनने में आसानी होती है। इसलिए वयोवृद्ध वयस्क को "मुझे ठीक-ठीक बताओ कि आप क्या रखना चाहते हैं" की बजाय "मुझे ठी-ठी ताओ आप क्या खना हते हैं" सुनाई दे सकता है। ऐसे में मदद करने के लिए, अन्य लोगों को आसानी से तेज़ बोलने की बजाय, व्यंजनों का स्पष्ट रूप से उच्चारण करने की ज़रूरत पड़ती है। उन्हें पुरुषों की बातों को समझने की तुलना में महिलाओं और बच्चों की बातें समझने में अधिक कठिनाई हो सकती है क्योंकि अधिकांश महिलाओं और बच्चों की आवाज़ें उच्च-तारत्व की होती है। धीरे-धीरे, निम्न-तारत्व की आवाज़ों को सुनना भी अधिक कठिन हो जाता है।

बहुत से वयोवृद्ध वयस्क को शोर वाले स्थानों या समूहों में सुनने में परेशानी होती है ऐसा पीछे से आने वाले शोर के कारण होता है।

कानों में घने बाल उग सकते हैं।

मुंह और नाक

(मुंह और दांतों पर आयुवृद्धि के प्रभाव और कान, नाक, और गले पर आयुवृद्धि के प्रभाव भी देखें।)

सामान्यत: जब लोग अपने 50वें दशक में होते हैं, तो उनकी स्वाद और सूंघने की क्षमता धीरे-धीरे कम होती जाती है। भोजन के विभिन प्रकार के स्वादों का मज़ा लेने के लिए दोनों इन्द्रियों की ज़रूरत होती है। जीभ केवल 5 मूल स्वादों को पहचान सकती है: मीठा, खट्टा, कड़वा, नमकीन और एक स्वाद जिसे उमामी कहते हैं (जिसे आमतौर पर मांसयुक्त या स्वादयुक्त कहा जाता है)। सूंघने की इंद्री की आवश्यकता अधिक हल्की और जटिल गंध की पहचान करने के लिए होती है (जैसे रसभरी)।

लोगों की आयु बढ़ने के साथ-साथ, जीभ की स्वादकलिकाओं में संवेदनशीलता कम होती जाती है। यह परिवर्तन कड़वे और खट्टे स्वाद की अपेक्षा मीठे और नमकीन स्वाद को अधिक प्रभावित करता है। सूंघने की क्षमता कम हो जाती है क्योंकि नाक के अंदर की परत पतली और सूखी हो जाती है साथ ही नाक में तंत्रिका के सिरे नष्ट हो जाते हैं। हालांकि, परिवर्तन बहुत थोड़ा सा ही होता है, आमतौर पर इससे केवल हल्की गंधों को पहचानने की क्षमता ही दुष्प्रभावित होती है। इन परिवर्तनों के कारण बहुत से खाने के स्वाद कड़वे लगते हैं, और हल्की गंध वाली भोजन सामग्री फीकी लग सकती है।

मुंह बार-बार सूखने लगता है, आंशिक रूप से ऐसा कम लार बनने के कारण होता है। सूखा मुंह भोजन का स्वाद लेने की क्षमता को और कम कर देता है।

लोगों की आयु बढ़ने के साथ-साथ, मसूड़े सिकुड़ने लगते हैं। परिणामस्वरूप, दांतों के निचले भाग खाद्य कणों और बैक्टीरिया के संपर्क में आ जाते है। साथ ही, दांत का इनेमल घिसने लगता है। इन परिवर्तनों, और साथ ही सूखे मुंह के कारण दांतों के सड़ने और उनमें कीड़े और कैविटी (क्षय) होने की संभावना बढ़ जाती है और इस प्रकार दांत गिरने की संभावना अधिक हो जाती है।

आयु बढ़ने के साथ-साथ, नाक लंबी और चौड़ी होने लगती है, तथा नाक का ऊपरी सिरा नीचे की ओर मुड़ने लगता है।

नाक में और होठों के ऊपर व ठोड़ी पर घने बाल उग सकते हैं।

त्वचा

(त्वचा पर आयुवृद्धि के प्रभाव भी देखें।)

त्वचा पतली, कम लचीली, शुष्क होने लगती है और उस पर हल्की झुर्रियां पड़ने लगती हैं। हालांकि, वर्षों से धूप के संपर्क में आना भी झुर्रियां पड़ने और त्वचा के रूखी व दागदार होने का एक बहुत बड़ा कारण है। जो लोग धूप के संपर्क में आने से बचते हैं वे अक्सर अपनी आयु से अधिक युवा दिखते हैं।

त्वचा में परिवर्तन आने का एक आंशिक कारण कोलेजन (एक कठोर रेशेदार ऊतक जो त्वचा को कसाव देता है) और इलास्टिन (जो त्वचा को लचीला बनाता है) में रासायनिक परिवर्तन होना और लचीलापन कम हो जाना है; साथ ही, वृद्धावस्था में शरीर कम कोलेजन और इलास्टिन का उत्पादन करता है। परिणामस्वरूप, त्वचा अधिक आसानी से फटने लगती है।

त्वचा के नीचे स्थित चर्बी की परत पतली होने लगती है। यह परत त्वचा के लिए एक गद्दी का काम करती है, जो त्वचा की रक्षा करने और उसे सहारा देने में मदद करती है। यह चर्बी की परत शरीर के तापमान को भी बनाए रखने में मदद करती है। जब यह परत पतली हो जाती है तो झुर्रियां पड़ने की संभावना बढ़ जाती है, और ठंड सहने की क्षमता कम हो जाती है।

त्वचा में तंत्रिका के सिरों की संख्या कम हो जाती है। परिणामस्वरूप, लोग दर्द, तापमान, और दबाव के प्रति कम संवेदनशील हो जाते हैं, और उनमें चोट लगने की संभावना बढ़ जाती है।

स्वेद ग्रंथियों और रक्त वाहिकाओं की संख्या कम हो जाती है, और त्वचा की गहरी परतों में रक्त का प्रवाह कम हो जाता है। परिणामस्वरूप, शरीर अपने अंदर की उष्मा को रक्त वाहिकाओं के माध्यम से शरीर की सतह तक पहुंचाने में कम सक्षम होता है। शरीर से कम उष्मा निकल पाती है और शरीर खुद को ठंडा भी नहीं कर पाता है। इसीलिए, हीट संबंधित विकारों, जैसे हीटस्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त, जब रक्त प्रवाह कम होता है, तो त्वचा बहुत धीमी गति से ठीक होती है।

पिगमेंट का उत्पादन करने वाली कोशिकाओं (मेलेनोसाइट) की संख्या कम हो जाती है। परिणामस्वरूप, त्वचा का अल्ट्रावायलेट (UV) किरणों, जैसे धूप से कम बचाव हो पाता है। धूप के संपर्क में आने वाली त्वचा पर बड़े-बड़े, कत्थई दाग होने लगते हैं, ऐसा शायद अपशिष्ट पदार्थों को निकालने में त्वचा के कम सक्षम होने के कारण होता है।

त्वचा धूप के संपर्क में आने पर कम विटामिन D बना पाती है। इसलिए, विटामिन D की कमी होने का खतरा बढ़ जाता है।

मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र

(तंत्रिका तंत्र पर आयुवृद्धि के प्रभाव भी देखें।)

मस्तिष्क में तंत्रिका कोशिकाओं की संख्या कम हो जाती है। हालांकि, मस्तिष्क इस हानि के लिए आंशिक रूप से कई तरीकों से भरपाई कर सकता है:

  • कोशिकाओं के नष्ट हो जाने पर, शेष बची तंत्रिका कोशिकाओं के बीच नए संपर्क बनाए जाते हैं।

  • वृद्धावस्था के दौरान भी, मस्तिष्क के कुछ भागों में नई तंत्रिका कोशिकाएं बन सकती हैं।

  • मस्तिष्क में, अधिकांश गतिविधियों को करने के लिए आवश्यक कोशिकाओं की संख्या से अधिक कोशिकाएं होती हैं—एक विशेषता जिसे दोहराव कहा जाता है। यानी, एक से अधिक क्षेत्र एक जैसा कार्य कर सकते हैं। इस प्रकार, कुछ अतिव्यापी कार्यों वाले क्षेत्रों द्वारा कभी-कभी बंद हो चुके कार्यों की भरपाई की जा सकती है।

मस्तिष्क में संदेश भेजने वाले रासायनिक पदार्थों के स्तर कम होने लगते हैं, लेकिन कुछ बढ़ने भी लगते हैं। तंत्रिका कोशिकाएं इन रासायनिक संदेशों के लिए अपने कुछ रिसेप्टर को गंवा भी सकती हैं। मस्तिष्क में रक्त का प्रवाह कम होने लगता है। इन आयु-संबंधित परिवर्तनों के कारण, मस्तिष्क थोड़ी कम अच्छी तरह से कार्य कर सकता है। वयोवृद्ध वयस्क कुछ अधिक धीमी गति से प्रतिक्रिया और कार्य कर सकते हैं, लेकिन समय दिए जाने पर, वे इन कार्यों को बिल्कुल सही ढंग से करते हैं। कुछ मानसिक क्रियाएं—जैसे शब्दसंग्रह, अल्पावधि स्मृति, नई चीज़ों को सीखने की क्षमता, और शब्दों को वापस याद में लाने की क्षमता—70 वर्ष की आयु के बाद सूक्ष्मता से कम हो सकती है।

लगभग 60 वर्ष की आयु के बाद, स्पाइनल कॉर्ड में कोशिकाओं की संख्या कम होना शुरू हो जाती है। आमतौर पर, इस परिवर्तन से शारीरिक शक्ति या संवेदना पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है।

क्या आप जानते हैं...

  • मस्तिष्क के पास आयुवृद्धि के साथ होने वाली तंत्रिका कोशिकाओं की हानि की भरपाई करने के कई तरीके होते हैं।

लोगों की आयु बढ़ने के साथ-साथ, तंत्रिकाएं और अधिक धीमी गति से संकेतकों का संचालन कर सकती हैं। आमतौर पर, यह परिवर्तन इतना कम होता है कि लोग इसे समझ ही नहीं पाते हैं। इसके अलावा, तंत्रिकाएं बहुत धीरे और अपूर्ण रूप से अपने आप को ठीक कर पाती हैं। इसलिए, क्षतिग्रस्त तंत्रिका वाले वयोवृद्ध वयस्क में संवेदना और शारीरिक शक्ति कम हो सकती है।

हृदय और रक्त वाहिकाएं

(हृदय और रक्त वाहिकाओं पर आयुवृद्धि के प्रभाव भी देखें।)

हृदय और रक्त वाहिकाएं पहले से सख्त हो जाती हैं। हृदय में रक्त बहुत धीमी गति से भरता है। जब सख्त धमनियों में अधिक रक्त पंप होता है तो वे कम फैल पाती हैं। इसलिए, ब्लड प्रेशर बढ़ने लगता है।

साथ ही, हृदय उतनी तेज़ी से या उतनी अच्छी तरह से उन रासायनिक संदेशवाहकों का प्रत्युत्तर नहीं दे पाता जो सामान्यतया गति बढ़ाने के लिए हृदय को उत्प्रेरित करते हैं।

इन परिवर्तनों के बावजूद, एक सामान्य वृद्ध हृदय अच्छी तरह से कार्य करता है। युवा और वृद्ध हृदय में अंतर केवल तभी दिखाई देता है जब हृदय को कड़ी मेहनत करनी पड़ती है और अधिक रक्त पंप करना पड़ता है—उदाहरण के लिए, व्यायाम या किसी बीमारी के दौरान। एक वृद्ध हृदय उतनी तेज़ी से काम नहीं कर सकता या उतनी तेज़ी से उतना रक्त पंप नहीं कर सकता जितना एक युवा हृदय कर सकता है। इसलिए, वृद्ध एथलीट युवा एथलीट की तरह अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं। हालांकि, नियमित एरोबिक व्यायाम वयोवृद्ध वयस्क में एथलेटिक प्रदर्शन को बेहतर बना सकता है (वयोवृद्ध वयस्क में व्यायाम देखें)। हृदय और रक्त वाहिकाओं में उम्र से संबंधित परिवर्तन जीवनशैली की आदतों (जैसे व्यायाम, नींद और आहार) और आवश्यक होने पर, दवाओं के कारण सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।

फेफड़े और सांस लेने की मांसपेशियां

(श्वसन तंत्र पर आयुवृद्धि के प्रभाव भी देखें।)

सांस लेने में प्रयोग होने वाली मांसपेशियाँ, डायाफ़्राम और पसलियों के बीच की मांसपेशियाँ, अक्सर कमजोर होने लगती हैं। फेफड़ों में वायु-कोषों (एलवियोलाई) और वाहिकाओं की संख्या कम हो जाती है। इसलिए, श्वास ली गई वायु से थोड़ी सी कम मात्रा में ऑक्सीजन अवशोषित होती है। फेफड़े कम लचीले हो जाते हैं। जो लोग धूम्रपान नहीं करते या जो फेफड़ों से संबंधित किसी विकार से ग्रस्त नहीं हैं, उनमें इन परिवर्तनों से सामान्य दैनिक गतिविधियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, लेकिन निमोनिया होने पर ये परिवर्तन सांस लेने और व्यायाम करने को अधिक कठिन बना सकते हैं। अधिक ऊंचाई वाले स्थानों पर (जहां कम ऑक्सीजन होती है) सांस लेना भी कठिन हो सकता है।

फेफड़े संक्रमण से कम लड़ पाते हैं, आंशिक रूप से यह इसलिए होता है क्योंकि वायुमार्गों से सूक्ष्मजीवों वाले अशुद्ध पदार्थों को हटाने वाली जो कोशिकाएं होती हैं वो ऐसा करने में कम सक्षम होती हैं। खांसी, जो कि फेफड़ों को साफ़ करने में भी मदद करती है, हल्की हो जाती है।

पाचन तंत्र

(पाचन तंत्र पर आयुवृद्धि के प्रभाव भी देखें।)

कुल मिलाकर, आयुवृद्धि से शरीर के अधिकांश अन्य भागों की अपेक्षा पाचन तंत्र कम दुष्प्रभावित होता है। ईसोफ़ेगस की मांसपेशियां कम प्रबलता से संकुचित होती हैं, लेकिन इससे ईसोफ़ेगस से जाने वाला भोजन प्रभावित नहीं होता। पेट से भोजन थोड़ा अधिक धीरे-धीरे बाहर निकलता है, और पेट कम लचीला हो जाने के कारण इतना अधिक भोजन संभाल नहीं सकता। लेकिन अधिकांश लोगों में, ये परिवर्तन इतने मामूली होते हैं कि उन पर ध्यान ही नहीं जाता।

कुछ परिवर्तनों से कुछ लोगों में समस्याएं होने लगती है। पाचन तंत्र में लैक्टेज़ का उत्पादन कम हो सकता है, जो एक एंज़ाइम है जो शरीर को दूध पचाने के लिए चाहिए होता है। परिणामस्वरूप, वयोवृद्ध वयस्क में दुग्ध-उत्पादों के प्रति असहनशीलता (लैक्टोज़ इन्टॉलेरेंस) विकसित होने की अधिक संभावना होती है। लैक्टोज़ असहनशीलता वाले लोग दुग्ध-उत्पादों का सेवन करने के बाद पेट में ब्लोटिंग महसूस कर सकते हैं या उन्हें गैस बन सकती है या उन्हें दस्त लग सकते हैं।

बड़ी आंत में, सामग्रियां थोड़ी और धीमी गति से आगे बढ़ती हैं। कुछ लोगों में, इस धीमेपन के कारण कब्ज हो जाती है।

कोशिकाओं की संख्या कम होने के कारण लिवर का आकार छोटा होने लगता है। इससे कम रक्त प्रवाह होता है और दवाओं और अन्य पदार्थों को संसाधित करने में शरीर की मदद करने वाले लिवर एंज़ाइम कम प्रभावपूर्ण ढंग से कार्य करते हैं। परिणामस्वरूप, लिवर शरीर में से दवाओं और अन्य पदार्थों को निकालने में मदद करने में थोड़ा कम सक्षम हो सकता है। और दवाओं के प्रभाव—ऐच्छिक और अनैच्छिक—लंबे समय तक रहते हैं।

किडनी और मूत्रपथ

(मूत्रपथ पर आयुवृद्धि के प्रभाव भी देखें।)

कोशिकाओं की संख्या कम होने के कारण किडनी का आकार छोटा होने लगता है। किडनी में रक्त का प्रवाह कम हो जाता है, और लगभग 30 वर्ष की आयु में, वे कम अच्छी तरह से रक्त को छानते हैं। वर्ष बीतने के साथ-साथ, हो सकता है कि वे रक्त से अपशिष्ट पदार्थों को और कम अच्छी तरह से निकाल पाएं। वे शरीर से बहुत अधिक पानी और बहुत कम लवण का उत्सर्जन कर सकते हैं, जिससे शरीर में पानी की कमी होने की अधिक संभावना होती है। इसके बावजूद, वे शरीर की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए लगभग हमेशा सही से ही कार्य करते हैं।

मूत्रपथ में होने वाले कुछ परिवर्तनों से मूत्रत्याग पर नियंत्रण रखना और भी कठिन हो सकता है:

  • मूत्र की अधिकतम मात्रा को रोक कर रखने की मूत्राशय की क्षमता कम हो जाती है। इसलिए, वयोवृद्ध वयस्क को अक्सर अधिक बार मूत्र त्याग करने जाना पड़ता है।

  • मूत्राशय की मांसपेशियां अनिश्चित रूप से संकुचित हो सकती हैं (अतिसक्रिय हो जाती हैं), चाहे लोगों को मूत्रत्याग करने की आवश्यकता हो या नहीं।

  • मूत्राशय की मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं। परिणामस्वरूप, वे ब्लैडर को खाली भी नहीं कर पाते, और मूत्रत्याग के बाद भी ब्लैडर में बहुत सारा मूत्र रह जाता है।

  • शरीर से मूत्र उत्सर्जन को नियंत्रित करने वाली मांसपेशियां (युरिनरी स्पिंक्टर) कसकर बंद होने और रिसाव को रोकने में कम सक्षम होती हैं। इसलिए, वयोवृद्ध वयस्क को पेशाब रोक कर रखने में अधिक कठिनाई होती है।

इन परिवर्तनों के कारण ही युरिनरी इनकॉन्टिनेन्स (मूत्र की अनियंत्रणीय हानि) लोगों की आयु बढ़ने के साथ-साथ अधिक आम होती जाती है।

महिलाओं में, मूत्रमार्ग (वह नली जिसके माध्यम से मूत्र शरीर से बाहर निकलता है) छोटा हो जाता है, और इसकी अंदर की परत पतली हो जाती है। इस समस्या का और मूत्र पथ में होने वाले अन्य परिवर्तनों का कारण, रजोनिवृत्ति के साथ एस्ट्रोजेन स्तर में आने वाली कमी हो सकती है।

जैसे-जैसे पुरुषों की उम्र बढ़ती है, प्रोस्टेट ग्रंथि बढ़ने लगती है—इस स्थिति को मामूली प्रोस्टेटिक हाइपरप्लासिया कहा जाता है। बहुत से पुरुषों में, प्रोस्टेट इतना बढ़ जाता है कि यह मूत्र उत्सर्जन में बाधा उत्पन्न करने लगता है और ब्लैडर को पूरी तरह खाली होने से रोक देता है। परिणामस्वरूप, वृद्ध पुरुष अक्सर अधिक जोर लगाए बिना ही मूत्र त्याग करते हैं, मूत्र निकलने में अधिक समय लेते हैं, मूत्र की धार रुकने पर अंत में उनकी मूत्र बूंद-बूंद टपकती रहती है, उन्हें बार-बार मूत्र आता है (जिसमें नींद के दौरान मूत्र करने के लिए अधिक बार जागना भी शामिल है)। वृद्ध पुरुषों में मूत्राशय पूरी तरह भरा होने पर भी मूत्र त्याग करने में अक्षम होने की अधिक संभावना होती है (जिसे मूत्रावधारण कहा जाता है)। इस विकार के लिए तत्काल चिकित्सीय देखभाल की आवश्यकता होती है।

प्रजनन अंग

महिला

(स्त्री जनन तंत्र पर आयुवृद्धि के प्रभाव भी देखें।)

सेक्स हार्मोन स्तरों पर आयुवृद्धि के प्रभाव पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में अधिक स्पष्ट होते हैं। महिलाओं में, इनमें से अधिकांश प्रभाव रजोनिवृत्ति से संबंधित होते हैं, जब स्त्री हार्मोन के स्तर (विशेषकर एस्ट्रोजेन) कम हो जाते हैं, तब मासिक धर्म होना बंद हो जाता है, और फिर गर्भधारण करना संभव नहीं होता। स्त्री हार्मोन के स्तर कम होने से अंडाशय और गर्भाशय सिकुड़ने लगते हैं। योनि के ऊतक पतले, शुष्क, और कम लचीले हो जाते हैं—एक स्थिति जिसे वुल्वोवैजाइनल एट्रॉफी कहा जाता है। गंभीर स्थितियों में, इन परिवर्तनों से खुजली, रक्तस्राव, संभोग के दौरान पीड़ा हो सकती है, और तुरंत मूत्रत्याग करने (मूत्रीय तात्कालिकता) की आवश्यकता हो सकती है।

स्तन कम सुडौल और अधिक रेशेदार हो जाते हैं, तथा उनमें शिथिलता आ जाती है। इन परिवर्तनों के कारण स्तनों में गांठों का पता लगाना अधिक कठिन हो जाता है।

कुछ परिवर्तन जो रजोनिवृत्ति होने पर आने शुरू होते हैं (जैसे हार्मोन का कम स्तर और योनि का सूखापन) यौन क्रिया में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं (महिलाओं में यौन क्रिया और डिस्फ़ंक्शन का विवरण देखें)। हालांकि, अधिकांश महिलाओं के लिए, आयु का बढ़ना यौन क्रिया के आनंद को बहुत अधिक कम नहीं करता। गर्भवती होने के बारे में चिंता न करने से यौन क्रिया और आनंद अधिक बेहतर हो सकते हैं।

क्या आप जानते हैं...

  • चूंकि आयुवृद्धि के साथ स्तनों में परिवर्तन आ जाता है, स्तनों में गांठों का, जो कैंसर की गांठें भी हो सकती हैं, पता लगाना अधिक कठिन हो जाता है।

पुरुष

(पुरुष जनन तंत्र पर आयुवृद्धि के प्रभाव भी देखें।)

पुरुषों में, सेक्स हार्मोन में परिवर्तन बहुत जल्द नहीं होते हैं। पुरुष हार्मोन टेस्टोस्टेरॉन के स्तर कम हो जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप शुक्राणु कम हो जाते है और यौनरुचि (कामेच्छा) कम हो जाती है, लेकिन यह कमी धीरे-धीरे आती है। यद्यपि लिंग के रक्त प्रवाह में कमी आ जाती है, फिर भी अधिकांश पुरुषों में जीवनभर इरेक्शन और ऑरेग्ज़्म हो सकता है। हालांकि, इरेक्शन ज़्यादा लंबे समय तक नहीं रह सकता है, यह थोड़ा कम सख्त हो सकता है, या इसे बनाए रखने के लिए अधिक स्टिम्युलेशन की आवश्यकता पड़ सकती है। दूसरे इरेक्शन में अधिक समय लग सकता है। इरेक्टाइल डिस्फ़ंक्शन (नपुंसकता) पुरुषों की आयु बढ़ने के साथ-साथ अधिक सामान्य होता जाता है और यह अक्सर किसी विकार के कारण होता है, आमतौर पर किसी ऐसे विकार के कारण जो रक्त वाहिकाओं को दुष्प्रभावित करता है (जैसे संवहनी रोग) या डायबिटीज

अंत:स्रावी तंत्र

(अंत:स्रावी तंत्र पर आयुवृद्धि के प्रभाव भी देखें।)

अंत:स्रावी ग्रंथियों द्वारा उत्पादित, कुछ हार्मोन के स्तरों और गतिविधि, में कमी आ जाती है।

  • वृद्धि हार्मोन के स्तर कम हो जाते हैं, जिससे मांसपेशीय द्रव्यमान कम हो जाता है।

  • एल्डोस्टेरोन के स्तर कम हो जाते हैं, जिससे शरीर में पानी की कमी होने की अधिक संभावना होती है। यह हार्मोन शरीर को लवण और जिसके चलते शरीर में पानी को बनाए रखने के संकेत देता है।

  • इंसुलिन, जो रक्त में शर्करा (ग्लूकोज) के स्तर को नियंत्रित रखने में मदद करता है, कम प्रभावी हो जाता है, और कम इंसुलिन का उत्पादन हो सकता है। इंसुलिन शर्करा को रक्त से कोशिकाओं में जाने में सक्षम बनाता है, जहां यह ऊर्जा में परिवर्तित हो सकती है। इंसुलिन में परिवर्तनों का अर्थ है कि अधिक भोजन के बाद शर्करा का स्तर अधिक बढ़ जाता है और इसे वापस सामान्य स्तर पर आने में अधिक समय लगता है।

अधिकांश लोगों के संबंध में, अंत:स्रावी तंत्र में होने वाले परिवर्तनों से संपूर्ण स्वास्थ्य पर कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं पड़ता है। लेकिन कुछ लोगों में, इन परिवर्तनों से स्वास्थ्य समस्याएं होने का खतरा बढ़ सकता है। उदाहरण के लिए, इंसुलिन में होने वाले परिवर्तनों से टाइप 2 डायबिटीज होने का खतरा बढ़ जाता है। इसलिए, व्यायाम और आहारचर्या, जो इंसुलिन क्रिया में सुधार कर सकते हैं, लोगों की आयु बढ़ने के साथ-साथ अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

रक्त उत्पादन

सक्रिय बोन मैरो, जिसमें रक्त कोशिकाओं का उत्पादन होता है, उसकी मात्रा कम हो जाती है। इसीलिए, रक्त कोशिकाओं का उत्पादन कम होता है। इसके बावजूद, बोन मैरो आमतौर पर जीवनभर पर्याप्त रक्त कोशिकाओं का उत्पादन कर सकती है। समस्याएं तब हो सकती हैं जब रक्त कोशिकाओं की आवश्यकता बहुत अधिक पड़ती है—उदाहरण के लिए जब एनीमिया या कोई संक्रमण हो जाता है या रक्तस्राव की समस्या हो जाती है। ऐसे मामलों में, बोन मैरो शरीर की आवश्यकताओं के प्रत्युत्तर में अपने रक्त कोशिकाओं के उत्पादन को बढ़ाने में कम सक्षम होती है।

प्रतिरक्षा तंत्र

प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं अधिक धीमी गति से कार्य करती हैं। ये कोशिकाएं बाह्य पदार्थों की पहचान करके उन्हें नष्ट करती हैं, जैसे बैक्टीरिया, अन्य संक्रमण रोगाणु, और संभवत: कैंसर कोशिकाएं। यह प्रतिरक्षा कार्यमंदी आयुवृद्धि से संबंधित विभिन्न जांच-परिणामों की आंशिक रूप से व्याख्या कर सकती है:

  • कैंसर वयोवृद्ध वयस्क में अधिक आम होता है।

  • वयोवृद्ध वयस्क में वैक्सीन से कम बचाव होते हैं, लेकिन इन्फ़्लूएंज़ा, निमोनिया और शिंगल्स की वैक्सीन अनिवार्य हैं और ये कुछ बचाव प्रदान करती हैं। जैसे-जैसे लोगों की उम्र बढ़ती है, प्रतिरक्षा प्रणाली कम प्रभावी हो जाती है और अन्य विकार अक्सर वयोवृद्ध वयस्क में अधिक आम होते हैं और अधिक गंभीर होते हैं। इस प्रकार, वयोवृद्ध वयस्क बीमारी और संक्रमण के कारण मृत्यु के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं जिसे वैक्सीन से रोका जा सकता है और वैक्सीन लगवाना उनके लिए अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।

  • कुछ संक्रमण, जैसे निमोनिया और इन्फ़्लूएंज़ा, वयोवृद्ध वयस्क में होना अधिक आम है और इनके परिणामस्वरूप अक्सर मृत्यु हो जाती है।

  • एलर्जी के लक्षण कम गंभीर हो सकते हैं।

जैसे-जैसे प्रतिरक्षा तंत्र धीमा पड़ने लगता है, वैसे-वैसे ऑटोइम्यून संबंधी विकार कम आम होते जाते हैं।

क्या आप जानते हैं...

  • वयोवृद्ध वयस्क बीमारी और संक्रमण के कारण मृत्यु के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं जिसे वैक्सीन से रोका जा सकता है, इसलिए वैक्सीन लगवाना उनके लिए अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।

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