सिस्टेमिक ल्यूपस एरिथेमेटोसस (SLE)

(डिसेमिनेटेड ल्यूपस एरिथेमेटोसस या ल्यूपस)

इनके द्वाराAlana M. Nevares, MD, The University of Vermont Medical Center
समीक्षा की गई/बदलाव किया गया अक्तू॰ २०२२

सिस्टेमिक ल्यूपस एरिथेमेटोसस संयोजी ऊतक संबंधी एक क्रोनिक ऑटोइम्यून इन्फ़्लेमेटरी विकार है जिसमें जोड़, किडनियाँ, त्वचा, म्यूकस झिल्लियाँ, और रक्त वाहिकाएँ प्रभावित हो सकती हैं।

  • जोड़ों, तंत्रिका तंत्र, खून, त्वचा, किडनियों, गैस्ट्रोइन्टेस्टिनल तंत्र, फेफड़े, और अन्य ऊतकों और अंगों में समस्याएँ विकसित हो सकती हैं।

  • जांच के लिए खून के परीक्षण और कभी-कभी दूसरे परीक्षण किए जाते हैं।

  • ल्यूपस से पीड़ित सभी लोगों को हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन की आवश्यकता होती है और ऐसे लोग जिन्हें ल्यूपस क्षति पहुँचाना जारी रखता है (सक्रिय ल्यूपस) उन्हें कॉर्टिकोस्टेरॉइड और उन दूसरी दवाओं को लेने की आवश्यकता होती है जो इम्यून प्रणाली का शमन करती हैं।

ल्यूपस से पीड़ित लगभग 70 से 90% लोगो में शिशु को जन्म देने की आयु वाली स्त्रियाँ होती हैं, लेकिन बच्चे (अधिकतर लड़कियाँ), बूढ़े पुरुष और स्त्रियाँ, और यहाँ तक कि नवजात शिशु भी प्रभावित हो सकते हैं। ल्यूपस संसार के सभी भागों में होता है लेकिन श्वेत लोगों की अपेक्षा अश्वेत और एशियाई लोगों में अधिक आम हो सकता है।

ल्यूपस का कारण आमतौर पर अज्ञात होता है। कभी-कभी, कुछ दवाओं जैसे (हृदय के रोगों के इलाज में उपयोग की जाने वाली दवाओं, हाइड्रालाज़ाइन और प्रोकैनामाइड, और आइसोनियाज़िड, जिसका उपयोग ट्यूबरक्लोसिस के इलाज में किया जाता है) का उपयोग ल्यूपस पैद कर सकता है। दवा से पैदा हुआ ल्यूपस आमतौर पर दवा को बंद करने पर चला जाता है।

ल्यूपस में दिखने वाले एंटीबॉडीज़ की संख्या और विविधता उनसे अधिक होती है जो किसी भी अन्य विकार में होते हैं। ये एंटीबॉडीज़ कभी-कभी तय कर सकते हैं कि कौन से लक्षण पैदा होते हैं। हालांकि, हो सकता है कि इन एंटीबॉडीज़ के स्तर व्यक्ति के लक्षणों के अनुपात में हमेशा न हों।

डिस्कॉइड ल्यूपस एरिथेमेटोसस (DLE), जिसे कभी-कभी क्रोनिक क्यूटेनियस ल्यूपस एरिथेमेटोसस कहा जाता है, ल्यूपस का ऐसा रूप होता है जो केवल त्वचा को प्रभावित करता है। इस स्थिति में, उठे हुए, गोल, लाल चकत्ते हो जाते हैं, कभी-कभी बढ़ने पर प्रभावित क्षेत्र में खरोंचों और बाल गिरने के साथ-साथ त्वचा की हानि होती है। प्रकाश के संपर्क में रहने वाले त्वचा के क्षेत्रों जैसे चेहरा, खोपड़ी, और कानों पर चकत्तों के समूह होते हैं। कभी-कभी चकत्ते या खरोंच म्यूकस झिल्लियों को भी प्रभावित करते हैं, विशेषकर मुंह की झिल्लियों को। 10% लोगों में, सिस्टेमिक ल्यूपस-उदाहरण के लिए, जोड़ों, किडनियों, और दिमाग को प्रभावित करने वाले-का प्रकटन हो सकता है।

क्रोनिक डिस्कॉइड ल्यूपस एरिथेमेटोसस
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यह तस्वीर मोटी, लाल पड़ गई त्वचा के विशेष गुणों वाले क्षेत्रों के साथ क्रोनिक डिस्कॉइड ल्यूपस एरिथेमेटोसस को दिखाती है।
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सबएक्यूट क्यूटेनियस ल्यूपस एरिथेमेटोसस (SCLE), ल्यूपस का वह रूप है जो अधिकतर त्वचा को प्रभावित करता है, और विस्तृत रूप से फैले हुए चकत्ते पैदा करता है, जो आते-जाते रहते हैं, और सूर्य के प्रकाश के संपर्क में आने पर बदतर हो सकते हैं। बाहों, चेहरे, और धड़ पर लाल और छल्ले जैसे आकार वाले या सोरियसिस-जैसे धब्बे बन सकते हैं। SCLE, DLE से अलग होता है क्योंकि SCLE दुर्लभ रूप से ही खरोंचे पैदा करता है। लोगों को सामान्यतः थकावट और जोडों में दर्द होता है, लेकिन आमतौर पर आंतरिक अंगों में गंभीर क्षति नहीं होती है, जो SLE में हो सकती है।

ल्यूपस के लक्षण

ल्यूपस के लक्षण अलग-अलग लोगों में अलग-अलग होते हैं। लक्षण एकदम से बुखार से शुरू हो सकते हैं, जो अचानक हुए संक्रमण के जैसे लगते हैं। या लक्षण कई महीनों या सालों में धीरे-धीरे उत्पन्न होते हैं और बीच-बीच (जिसे फ्लेयर-अप कहा जाता है) में बुखार, अच्छा न लगना या नीचे बताए गए कोई भी लक्षण उत्पन्न हो सकते हैं और इनके बीच में ऐसा समय भी रहता है, जब लक्षण मौजूद नहीं होते हैं या कम से कम होते हैं। ल्यूपस से पीड़ित अधिकांश लोगों में मुख्यतः त्वचा और जोड़ों को प्रभावित करने वाले हल्के लक्षण होते हैं।

दिखाई देने वाली पहली असामान्यताएँ, माइग्रेन की तरह का सिरदर्द, मिर्गी या गंभीर मानसिक विकार (साइकोसेस) हो सकती हैं। लेकिन, बाद में ये लक्षण किसी भी अंग तंत्र को प्रभावित कर सकते हैं।

जोड़ों की समस्याएँ

जोड़ों के लक्षण, जिनमें बीच-बीच में जोड़ों में होने वाले दर्द (अर्थ्रेल्जिया) से लेकर कई जोड़ों में अचानक होने वाली जलन (एक्यूट पॉलीअर्थराइटिस), लगभग 90% लोगों को होती है और अन्य लक्षणों के उभरने से पहले कई सालों तक बनी रहती है। लंबे समय तक चलने वाले रोग में, जोड़ों में ढीलापन आ सकता है और वे विकृत हो सकते हैं (जैकौड अर्थ्रोपैथी या अर्थराइटिस), लेकिन ऐसा बहुत कम ही होता है। हालांकि, जोड़ों में जलन सामान्यतः कभी-कभी ही होती है और आमतौर पर इससे जोड़ों को क्षति नहीं पहुँचती है।

त्वचा और श्लेष्मा झिल्ली की समस्याएँ

विभिन्‍न प्रकार के रैश अर्थात् नाक और गालों के आस-पास तितली के आकार के लाल दाने फैले होते हैं (इसे मालार रैश या बटरफ्लाई रैश कहा जाता है), पतली त्वचा के उभार या पैच, और चेहरे और गर्दन, ऊपरी छाती और कोहनी के बाहरी क्षेत्रों पर सपाट या उभरे हुए लाल निशान दिखाई देते हैं। फफोले और त्वचा पर होने वाले छाले (घाव) कम ही मामलों में होते हैं, लेकिन छाले अक्सर श्लेष्मा झिल्ली पर, ख़ासतौर पर मुंह के अंदर ऊपरी भाग में, गाल के अंदर, मसूड़ों पर या नाक के अंदर उत्पन्न होते हैं।

सिस्टेमिक ल्यूपस एरिथेमेटोसस (बटरफ्लाई रैश)
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लाल चकत्ते उभरना, जो तितली के आकार के होते हैं। यह नाक की नली, गालों और धूप में खुली हुई अन्य जगहों जैसे आइब्रो के ऊपरी हिस्सों को कवर करता है।
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फ़्लेयर-अप के दौरान पूरे सिर से या सिर के कुछ हिस्सों से बालों का झड़ने (एलोपेसिया) की समस्या हो सकती है।

हथेलियों की साइड में और अंगुलियों के ऊपरी हिस्से पर लाल चकत्ते बन जाते हैं, नाखूनों पर लालिमा और सूजन आ जाती है और अंगुलियों की अंदरूनी सतह पर अंगुलियों के जोड़ों में लाल बैंगनी धब्बे उत्पन्न हो जाते हैं। रक्त में प्लेटलेट्स की कमी के कारण, त्वचा में रक्तस्राव होने पर बैंगनी धब्बे (पर्प्यूरा) बन सकते हैं।

ल्यूपस से पीड़ित कुछ लोगों में, ख़ासतौर पर गोरी त्वचा वाले लोगों में, धूप में रहने (फ़ोटोसेंसिटिविटी) के कारण, लंबे समय तक बने रहने वाले दाने उत्पन्न हो जाते हैं।

ल्यूपस से पीड़ित जिन लोगों को रेनॉड सिंड्रोम होता है, उनकी हाथों और पैरों की अंगुलियाँ सर्दी में पीली या नीली पड़ जाती हैं।

फेफड़ों की समस्या

ल्यूपस से पीड़ित लोगों को अक्सर गहरी सांस लेने पर दर्द महसूस होता है। यह दर्द फेफड़ों को घेरे रहने वाले खंड में बार-बार होने वाली जलन (प्लूरिसी) के कारण होता है, जिसमें इस खंड के अंदर फ़्लूड मौजूद भी हो सकता है या मौजूद नहीं भी हो सकता है (इफ़्यूज़न—इस खंड में प्लूरल इफ़्यूज़न के लक्षण देखें)। फेफड़ों में जलन (ल्यूपस न्यूमोनाइटिस), जिसमें सांस फूलने लगती है, बहुत कम मामलों में होती है, लेकिन फेफड़ों की कार्यक्षमता में हल्की फुल्की असामान्यता आना सामान्य होता है। फेफड़ों में जानलेवा रक्तस्राव बहुत ही कम मामलों में होता है। रक्त के थक्कों के कारण फेफड़ों की धमनियों में ब्लॉकेज (थ्रॉम्बॉसिस) भी हो सकता है।

हृदय की समस्याएं

ल्यूपस से पीड़ित लोगों में हृदय को घेरे रहने वाले कोश में जलन होने के कारण छाती में दर्द हो सकता है (पेरिकार्डाइटिस)। हृदय पर होने वाले ज़्यादा गंभीर लेकिन दुर्लभ प्रभाव हैं, कोरोनरी धमनी की दीवारों पर जलन होना (कोरोनरी आर्टरी वैस्कुलाइटिस), जिसके कारण एनजाइना हो सकता है और हृदय की मांसपेशी में जलन होना (मायोकार्डाइटिस), जिसके कारण हृदयाघात हो सकता है। बहुत कम मामलों में हृदय के वाल्व भी इनसे प्रभावित हो सकते हैं और उन्हें सर्जरी से ठीक करना पड़ सकता है। लोगों को कोरोनरी धमनी रोग का जोखिम ज़्यादा होता है।

अगर किसी नवजात शिशु की माँ ल्यूपस से पीड़ित है और उसमें एक विशेष प्रकार की एंटीबॉडी (एंटी-Rho/SSA एंटीबॉडी) है, तो उसमें जन्मजात हार्ट ब्लॉक की समस्या हो सकती है।

लसीका ग्रंथि और स्प्लीन की समस्याएँ

लसीका ग्रंथियों का एक साथ बड़ा होना सामान्य होता है, ख़ासतौर पर बच्चों, युवाओं और सभी उम्र के अश्वेत लोगों में।

लगभग 10% लोगों में स्प्लीन बड़ा हो जाता है (स्प्लीनोमेगेली)।

तंत्रिका तंत्र की समस्याएँ

मस्तिष्क के प्रभावित होने (न्यूरोसाइकिआट्रिक ल्यूपस) पर सिरदर्द, सोचने की क्षमता में थोड़ी कमी, व्यक्तित्व में बदलाव, आघात, सीज़र्स, गंभीर मानसिक विकार (साइकोसेस) हो सकते हैं या ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है जिसमें मस्तिष्क में कई शारीरिक बदलाव आ सकते हैं, जिसके कारण डेमेंशिया जैसे विकार उत्पन्न हो सकते हैं। शरीर या स्पाइनल कॉर्ड की तंत्रिकाएँ भी क्षतिग्रस्त हो सकती हैं।

किडनी की समस्याएं

किडनी के प्रभावित होने की संभावना कम होती है और उसके प्रभावित होने पर या तो कोई लक्षण नहीं दिखते हैं या हो सकता है कि लक्षण बढ़ते जाएँ और जानलेवा हो जाएं। लोगों की किडनी खराब हो सकती हैं और उन्हें डायलिसिस की ज़रूरत पड़ सकती है। किडनी किसी भी समय प्रभावित हो सकती हैं और हो सकता है कि ल्यूपस से सिर्फ़ किडनी ही एकमात्र अंग हो जो प्रभावित हो। किडनी के खराब होने का सबसे सामान्य परिणाम यह होता है कि ब्लड प्रेशर हाई हो जाता है और पेशाब में प्रोटीन आने लगता है, जिसके कारण पैरों में सूजन (एडिमा) आ जाती है।

रक्त की समस्याएँ

लाल रक्त कोशिकाओं, श्वेत रक्त कोशिकाओं और प्लेटलेट्स की संख्या में कमी आ सकती है। प्लेटलेट्स रक्त का थक्का बनाने में सहायक होती हैं, इसलिए इनकी संख्या में कमी आने पर, रक्तस्राव हो सकता है। इसके अलावा, दूसरे कारणों से, रक्त के थक्के ज़्यादा आसानी से बन सकते हैं, जिसके कारण अन्य अंगों को प्रभावित करने वाली कई समस्याएँ (जैसे कि स्ट्रोक और फेफड़ों में ब्लड क्लॉटिंग या बार-बार गर्भपात) हो सकती हैं।

गैस्ट्रोइन्टेस्टिनल ट्रैक्ट की समस्याएँ

लोगों को मतली, दस्त और पेट की अन्य समस्याएँ हो सकती हैं। इन लक्षणों का उभरना, ल्यूपस के दौरे की पूर्व-चेतावनी हो सकता है। गैस्ट्रोइन्टेस्टिनल ट्रैक्ट के कई हिस्सों में रक्त की आपूर्ति बाधित होने के कारण पेट में तेज़ दर्द, लिवर या पैन्क्रियाज़ में खराबी (पैन्क्रियाटाइटिस) या गैस्ट्रोइन्टेस्टिनल ट्रैक्ट में ब्लॉकेज या छेद (छिद्रण) हो सकता है।

गर्भधारण की समस्याएँ

गर्भवती महिलाओं को गर्भपात और गर्भस्थ शिशु की मृत्यु का सामान्य से अधिक खतरा होता है। गर्भावस्था के दौरान फ्लेयर-अप आम होते हैं और ख़ासतौर पर प्रसव के तुरंत बाद (गर्भावस्था में सिस्टेमिक ल्यूपस एरिथेमेटोसस भी देखें)।

डॉक्टर उन महिलाओं को गर्भ धारण नहीं करने की सलाह देते हैं, जिनका ल्यूपस पिछले 6 महीनों में नियंत्रित नहीं हुआ हो।

ल्यूपस का निदान

  • डॉक्टर की जांच

  • प्रयोगशाला परीक्षण

डॉक्टर, संपूर्ण शारीरिक जांच के दौरान मुख्यतः व्यक्ति के लक्षणों के आधार पर और ख़ासतौर पर युवा महिलाओं में ल्यूपस का पता लगाते हैं।

ल्यूपस की पुष्टि करने के लिए, डॉक्टर कई प्रयोगशाला जांच करते हैं। हालांकि ऐसा कोई एक निश्चित प्रयोगशाला परीक्षण नहीं है, जो ल्यूपस की पुष्टि कर सके, लेकिन डॉक्टर ये टेस्ट यह पता लगाने के लिए करते हैं कि कहीं रोगी को संयोजी ऊतक के अन्य विकार तो नहीं हैं। डॉक्टर अपने द्वारा एकत्रित की गई पूरी जानकारी, जैसे लक्षणों, शारीरिक जांच के परिणामों और सभी परीक्षणों के परिणामों के आधार पर ल्यूपस का पता लगाते हैं। डॉक्टर इस जानकारी का उपयोग यह पता लगाने के लिए करते हैं कि क्या लोग ल्यूपस की पुष्टि के लिए उपयोग किए जाने वाले पहले से तय निश्चित मापदंड को पूरा करते हैं। हालांकि, कई प्रकार के लक्षण होने के कारण, ल्यूपस और इससे मिलते-जुलते रोगों में अंतर करना और सही रोग का पता लगाना मुश्किल हो सकता है।

प्रयोगशाला परीक्षण

हालांकि रक्त के परीक्षण की मदद से डॉक्टर ल्यूपस का पता लगा सकते हैं, लेकिन सिर्फ़ इसी से ल्यूपस की पुष्टि नहीं की जा सकती, क्योंकि कभी-कभी इससे पता चलने वाली असामान्यताएँ स्वस्थ लोगों में या अन्य विकारों से पीड़ित लोगों में भी मौजूद होती हैं।

रक्त के परीक्षण से एंटीन्यूक्लियर एंटीबॉडीज़ (ANA) का पता चल सकता है, जो ल्यूपस से पीड़ित लगभग सभी लोगों में पाई जाती हैं। हालांकि, ये एंटीबॉडीज़ अन्य रोगों में भी पाई जाती हैं। इसलिए, एंटीन्यूक्लियर एंटीबॉडीज़ का पता चलने पर, डबल स्ट्रेंड वाले DNA की एंटीबॉडीज़ का परीक्षण और साथ ही अन्य ऑटोइम्यून एंटीबॉडीज़ (ऑटोएंटीबॉडीज़) का परीक्षण किया जाता है। DNA के विरुद्ध बनी इन एंटीबॉडीज़ की अधिक मात्रा, ल्यूपस की पुष्टि करती है, लेकिन ल्यूपस से पीड़ित सभी लोगों में ये एंटीबॉडीज़ नहीं होती हैं।

रक्त के अन्य परीक्षण, जैसे कि कॉम्प्लीमेंट प्रोटीन की मात्रा का पता लगाना (बैक्टीरिया को मारने की क्षमता जैसी विभिन्न प्रतिरोधक क्षमताओं वाले प्रोटीन), भी किए जाते हैं और ये कुछ लोगों में रोग की अगली स्टेज और गतिविधि का पूर्वानुमान लगाने में मदद करते हैं।

ल्यूपस से पीड़ित ऐसी महिलाएँ, जिन्हें बार-बार गर्भपात होता है या जिनमें रक्त के थक्के बनने की समस्याएँ होती हैं, उनके लिए एंटीफ़ॉस्फ़ोलिपिड एंटीबॉडीज़ का परीक्षण किया जाना चाहिए। गर्भनिरोधक तरीकों या गर्भाधान की योजना बनाते समय यह परीक्षण बहुत महत्वपूर्ण होता है। रक्त का यह परीक्षण, जो फ़ॉस्फ़ोलिपिड्स की एंटीबॉडीज़ का पता लगाता है, यह भी पता लगा सकता है कि किन लोगों को रक्त के थक्के बार-बार बनने का खतरा हो सकता है। जिन महिलाओं में फ़ॉस्फ़ोलिपिड के विरुद्ध एंटीबॉडीज़ होती हैं, उन्हें एस्ट्रोजन वाली गर्भनिरोधक दवाएँ नहीं खानी चाहिए, इसके बजाय उन्हें परिवार नियोजन के अन्य उपाय अपनाने चाहिए।

रक्त के परीक्षण, लाल रक्त कोशिकाओं की कम संख्या (एनीमिया), श्वेत रक्त कोशिकाओं की कम संख्या या प्लेटलेट्स की कम संख्या की जानकारी भी दे सकते हैं। जिन लोगों को एनीमिया होता है, उन्हें कूम्ब्स परीक्षण करवाना पड़ता है। इस परीक्षण का उपयोग लाल रक्त कोशिकाओं की सतह से चिपकी और उनको नष्ट कर सकने वाली, मतलब एनीमिया उत्पन्न कर सकने वाली कुछ एंटीबॉडीज़ की बढ़ी हुई मात्रा का पता लगाने के लिए किया जाता है।

प्रयोगशाला के अतिरिक्त परीक्षण, पेशाब में प्रोटीन या लाल रक्त कोशिकाओं की मौजूदगी (यूरिनेलिसिस) या रक्त में क्रिएटिनिन की बढ़ी हुई मात्रा का पता लगाने के लिए किए जाते हैं। इन परिणामों से पता चलता है कि किडनी की रक्त को फ़िल्टर करने वाली संरचना (ग्लोमेरुली) में जलन है, इस स्थिति को ग्लोमेरुलोनेफ़्राइटिस कहा जाता है। कभी-कभी किडनी की बायोप्सी (जांच और परीक्षण के लिए ऊतक को निकालना) की जाती है, ताकि डॉक्टर आगे के उपचार की योजना बना सके। ल्यूपस से पीड़ित लोगों में किडनी की क्षति की जांच बार-बार की जानी चाहिए, भले ही उनमें कोई लक्षण न दिखाई दे रहा हो (किडनी फ़ंक्शन टेस्ट देखें)।

ल्यूपस के लिए पूर्वानुमान

ल्यूपस क्रोनिक होता है और बार-बार लौटकर आता है, इसमें अक्सर कुछ बार (लौटकर आने पर) कोई लक्षण दिखाई नहीं देते हैं और ऐसी अवधि कई साल की हो सकती है। ल्यूपस के दौरे, धूप के संपर्क में आने पर, संक्रमण या सर्जरी होने पर या गर्भावस्था के दौरान पड़ सकते हैं। रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं में ल्यूपस के दौरे कम पड़ते हैं।

पहले की तुलना में अब काफ़ी ज़्यादा लोगों में ल्यूपस का पता जल्दी चल जाता है और उनको ल्यूपस हल्का की होता है और अब इसका बेहतर उपचार उपलब्ध है। परिणामस्वरूप, अधिकांश विकसित देशों में, रोग का पता चलने के बाद 95% लोग कम से कम 10 साल और जीते हैं। लेकिन, चूँकि ल्यूपस में आगे क्या होगा, यह निश्चित नहीं होता है, इसलिए प्रॉग्नॉसिस काफ़ी अलग-अलग होती है। आमतौर पर, अगर शुरुआती जलन को नियंत्रित कर लिया जाए, तो लंबे समय की प्रॉग्नॉसिस अच्छी रहती है। किडनी की क्षति का जल्दी पता चलने और उसका जल्दी उपचार होने पर किडनी का कोई गंभीर रोग होने की संभावना कम हो जाती है। लेकिन, ल्यूपस से पीड़ित लोगों को हृदय रोगों का खतरा अधिक होता है।

ल्यूपस का उपचार

  • सभी प्रभावित लोगों के लिए हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन (एक मलेरिया-रोधी दवा)

  • जोड़ों में हल्के लक्षण दिखने पर बिना स्टेरॉइड वाली दवाएँ और त्वचा में हल्के लक्षण दिखने पर कॉर्टिकोस्टेरॉइड क्रीम

  • रोग के गंभीर हो जाने पर कॉर्टिकोस्टेरॉइड, इम्यूनोसप्रेसिव दवाएँ और मलेरिया-रोधी दवाएँ

ल्यूपस का उपचार इस बात पर निर्भर करता है कि उससे कौन-से अंग प्रभावित हैं और जलन कितनी सक्रिय है। ज़रूरी नहीं है कि ल्यूपस में अंगों की क्षति और जलन की गतिविधि बराबर ही हो। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि ल्यूपस ने पहले जो जलन उत्पन्न की थी, उससे कुछ अंग हमेशा के लिए क्षतिग्रस्त और खराब हो गए हों। ऐसी क्षति को “गंभीर” कहा जाता है, भले ही ल्यूपस सक्रिय न हो (मतलब कि वह इस समय कोई जलन या क्षति नहीं कर रहा है)। उपचार का लक्ष्य ल्यूपस की गतिविधि को कम करना—मतलब जलन कम करना होता है, जिससे नई और आगे की क्षति रुक जाती है।

ल्यूपस से पीड़ित सभी लोगों को मुंह से मलेरिया-रोधी दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन दी जाती है, चाहे उनमें ये रोग हल्का हो या गंभीर, क्योंकि इससे रोग के दौरों में कमी आती है और मृत्यु का जोखिम कम हो जाता है। लेकिन, जिन लोगों में G6PD की कमी होती है (G6PD एक ऐसा एंजाइम होता है, जो लाल रक्त कोशिकाओं को कुछ विषैले रसायनों से सुरक्षित रखता है), उन्हें हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन नहीं दिया जाता है, क्योंकि उनमें यह दवा, लाल रक्त कोशिकाओं को तेज़ी से खत्म कर सकती है। हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन लेने वाले लोगों को अपनी आँखों की नियमित जांच करवानी चाहिए, क्योंकि इस दवा को कई सालों तक लेने पर इससे आँख के पीछे क्षति पहुँचने का जोखिम थोड़ा बढ़ जाता है।

हल्के से लेकर मध्यम ल्यूपस

अगर ल्यूपस ज़्यादा एक्टिव नहीं है और जोड़ों या त्वचा पर हल्के लक्षण ही दिखाई दे रहे हैं, तो उपचार का तीव्र होना ज़रूरी नहीं होता है। बिना स्टेरॉइड वाली एंटी-इन्फ़्लेमेटरी दवाएँ (NSAID) अक्सर जोड़ों के दर्द से राहत देती हैं, लेकिन इन्हें लगातार लंबे समय तक नहीं लिया जाना चाहिए। मलेरिया-रोधी दवाएँ, जैसे कि हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन, क्लोरोक्विन या क्विनाक्रिन, त्वचा और जोड़ों पर दिखने वाले लक्षणों में राहत देती हैं और फ्लेयर-अप की आवृत्ति में कमी लाती हैं।

जिन लोगों को रैश या छाले हों, उन्हें सीधी धूप में जाने से बचना चाहिए और बाहर जाने पर स्ट्रॉन्ग सनस्क्रीन (कम से कम 30 सन प्रोटेक्शन फ़ैक्टर वाली) लगानी चाहिए। रैश का उपचार भी कॉर्टिकोस्टेरॉइड क्रीम या मलहमों से किया जा सकता है।

अगर कॉर्टिकोस्टेरॉइड क्रीम या मलहमों और हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन से त्वचा के लक्षणों में राहत न मिले, तो रोगी को हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन और क्विनाक्रिन या हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन और मीथोट्रेक्सेट, माइकोफ़ेनोलेट मोफ़ेटिल या एज़ेथिओप्रीन का संयोजन दिया जा सकता है। जिन लोगों में ल्यूपस के दौरे बार-बार उठते हैं, उन्हें बेलिमुमैब भी दी जा सकती है, यह दवा ल्यूपस से पीड़ित लोगों में ऑटोइम्यून रिस्पॉन्स में शामिल कुछ प्रकार की श्वेत रक्त कोशिकाओं की गतिविधि में कमी लाती है।

गंभीर ल्यूपस

गंभीर, एक्टिव ल्यूपस से पीड़ित लोग, जिनकी किडनी या मस्तिष्क इससे प्रभावित हो चुका हो या जिनके फेफड़ों में खून स्राव हो गया हो, उनका उपचार तुरंत और आम तौर पर कॉर्टिकोस्टेरॉइड मेथिलप्रेडनिसोलोन से किया जाता है, जिसे शिरा के ज़रिए दिया जाता है (कॉर्टिकोस्टेरॉइड: उपयोग और दुष्प्रभाव देखें)। फिर लोगों को कॉर्टिकोस्टेरॉइड प्रेडनिसोन खाने के लिए दिया जाता है। उपचार की खुराक और अवधि इस बात पर निर्भर करती है कि रोग से कौन-से अंग प्रभावित हुए हैं। शरीर के ऑटोइम्यून हमले को दबाने के लिए इम्यूनोसप्रेसिव दवा, साइक्लोफ़ॉस्फ़ामाइड भी दी जाती है। माइकोफ़ेनोलेट मोफ़ेटिल, किडनी को प्रभावित करने वाले गंभीर ल्यूपस के लिए आमतौर पर उपयोग की जाने वाली एक वैकल्पिक दवा है, क्योंकि यह आमतौर पर साइक्लोफ़ॉस्फ़ामाइड के बराबर ही प्रभावी और उससे कम विषैली होती है। कुछ लोगों में बेलिमुमैब, वोक्लोस्पोरिन या ऐनिफ़्रोलुमैब जैसी अन्य इम्यूनोसप्रेसेंट दवाएँ भी ल्यूपस के लक्षणों में कमी लाती हैं।

जिन लोगों में इस रोग की किडनी की आखिरी स्टेज वाली स्थिति होती है, उनमें डायलिसिस की जगह किडनी प्रत्यारोपण भी किया जा सकता है।

जिन लोगों में कुछ विशेष प्रकार की रक्त की समस्याएँ होती हैं, उन्हें कॉर्टिकोस्टेरॉइड की मध्यम से लेकर ज़्यादा खुराक मुंह के ज़रिए किसी इम्यूनोसप्रेसेंट दवा जैसे कि एज़ेथिओप्रीन या माइकोफ़ेनोलेट मोफ़ेटिल के साथ दी जाती है। उन्हें शिरा के ज़रिए इम्यून ग्लोब्युलिन (एक ऐसा पदार्थ जिसमें कई एंटीबॉडीज़ की बड़ी मात्रा होती है) दिया जा सकता है। जिन लोगों को इन उपचारों से फ़ायदा नहीं मिलता है, उन्हें इम्यूनोसप्रेसिव दवा रिटक्सीमैब दी जा सकती है।

जिन लोगों को तंत्रिका तंत्र की समस्याएँ होती हैं, उन्हें शिरा के ज़रिए साइक्लोफ़ॉस्फ़ामाइड या रिटक्सीमैब दिया जा सकता है।

जिन लोगों में रक्त के थक्के बनते हैं, उन्हें हैपेरिन, वारफ़ेरिन या अन्य एंटीकोग्युलेन्ट दवाएँ (इन दवाओं को कभी-कभी रक्त को पतला करने वाली दवाएँ भी कहा जाता है) दी जाती हैं।

गंभीर ल्यूपस से पीड़ित लोग अक्सर पाते हैं कि उपचार के 4 से 12 सप्ताह बाद उनके लक्षण कम हो गए हैं।

मेंटेनेंस दवा थेरेपी

शुरुआती जलन नियंत्रित हो जाने के बाद, डॉक्टर कॉर्टिकोस्टेरॉइड और जलन को नियंत्रित करने वाली अन्य दवाओं (जैसे मलेरिया-रोधी दवाओं और इम्यूनोसप्रेसेंट) की न्यूनतम खुराक निर्धारित करता है, जिसकी ज़रूरत जलन को लंबे समय के लिए नियंत्रित करने के लिए होती है। आमतौर पर जब लक्षण नियंत्रित होते हैं और प्रयोगशाला परीक्षण के परिणाम सुधार दिखाते हैं, तब प्रेडनिसोन की खुराक धीरे-धीरे कम कर दी जाती है। इस प्रक्रिया के दौरान रिलैप्स या फ़्लेयर-अप हो सकते हैं। ल्यूपस से पीड़ित अधिकतर लोगों के लिए, प्रेडनिसोन की खुराक को अंततः कम या बंद किया जा सकता है। चूँकि कॉर्टिकोस्टेरॉइड की बड़ी खुराकों का लंबे समय तक उपयोग किए जाने के कारण कई दुष्प्रभाव होते हैं, इसलिए जिन लोगों को लंबे समय तक कॉर्टिकोस्टेरॉइड की बड़ी खुराकें लेने की आवश्यकता होती है उन्हें वैकल्पिक दवा जैसे एज़ेथिओप्रीन, मीथोट्रेक्सेट, या माइकोफ़ेनोलेट मोफ़ेटिल दी जाती है।

जो लोग कॉर्टिकोस्टेरॉइड लेते हैं उनकी समय-समय पर जांच की जानी चाहिए और, यदि आवश्यक हो, तो ऑस्टियोपोरोसिस का इलाज किया जाना चाहिए, जो लंबे समय तक कॉर्टिकोस्टेरॉइड के उपयोग से हो सकता है। जो लोग लंबी अवधि के लिए कॉर्टिकोस्टेरॉइड की बड़ी खुराकें लेते हैं उन्हें ऑस्टियोपोरोसिस को रोकने में मदद के लिए कैल्शियम और विटामिन D सप्लीमेंट और बिसफ़ॉस्फ़ोनेट दी जा सकती है भले ही उनकी हड्डी का घनत्व सामान्य हो।

इम्यूनोसप्रेसेंट ले रहे लोगों को संक्रमणों जैसे न्यूमोसिस्टिस जीरोवेकिआय फंगस के संक्रमण को रोकने की दवाएँ (कमज़ोर प्रतिरक्षा तंत्र वाले लोगों में निमोनिया की रोकथाम देखें) और सामान्य संक्रमणों जैसे निमोनिया, इंफ़्लूएंज़ा और कोविड-19 के टीके भी दिए जाते हैं।

अन्य चिकित्सकीय स्थितियाँ और गर्भावस्था

हृदय रोग के लिए डॉक्टर द्वारा सभी लोगों की करीबी निगरानी की जानी चाहिए। कोरोनरी धमनी के रोग (उदाहरण के लिए, अधिक ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, और कोलेस्ट्रॉल का उच्च स्तर) के लिए आम जोखिम के कारकों को जितना अच्छे से हो सके नियंत्रित किया जाना चाहिए।

उन लोगों के लिए सर्जिकल प्रक्रिया और गर्भावस्था अधिक जटिल हो सकती है जिन्हें ल्यूपस है, और उन्हें करीबी चिकित्सकीय देखभाल की आवश्यकता होती है। यदि गर्भवती हों, तो स्त्रियों को उनकी गर्भावस्था के पूरे समय तक हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन पर बने रहना चाहिए और उन्हें एस्पिरिन की छोटी खुराक भी दी जा सकती है। वे गर्भवती स्त्रियाँ जिन्हें खून के क्लॉट होने का जोखिम हो उन्हें हैपेरिन दी जा सकती है। गर्भावस्था के दौरान गर्भपात और फ्लेयर-अप आम होते हैं।

फ्लेयर-अप के दौरान स्त्रियों को गर्भवती होने से बचना चाहिए। चूँकि माइकोफ़ेनोलेट मोफ़ेटिल जन्म दोषों का कारक बन सकती है, इसलिए स्त्रियों को गर्भवती होने के लिए तब तक इंतज़ार करना चाहिए जब उनकी बीमारी को 6 महीने या उससे लंबे समय तक अच्छे से नियंत्रित रखा गया हो (गर्भावस्था के दौरान ल्यूपस देखें)। वे स्त्रियाँ जो रिमिशन में हों और जो गर्भवती होने का विचार कर रही हों लेकिन उन्हें मेंटेनेंस दवाएँ लेते रहने की आवश्यकता हो, उनको आमतौर से गर्भधारण के कम से कम 6 महीने पहले माइकोफ़ेनोलेट मोफ़ेटिल को बदल कर एज़ेथिओप्रीन दी जाती है।

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निम्नलिखित अंग्रेजी-भाषा संसाधन उपयोगी हो सकते हैं। कृपया ध्यान दें कि इस संसाधन की विषयवस्तु के लिए मैन्युअल ज़िम्मेदार नहीं है।

  1. Lupus Foundation of America: ल्यूपस के साथ जीवन जीने और चल रहे ल्यूपस शोध के बारे में जानकारी प्रदान करता है

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