डायबिटिक नैफ्रोपैथी

किडनी एक छोटे, बीन के आकार के अंगों का जोड़ा होती हैं, जो कि धड़ में पीछे की ओर पसलियों के पीछे स्थित होती हैं। हालांकि व्यक्ति में जन्म से ही दो किडनी होती हैं, फिर भी हमारा शरीर एक स्वस्थ किडनी होने पर भी अच्छे से काम कर सकता है।

किडनी के काम में, शरीर में फ़्लूड पदार्थों को संतुलित करना, ब्लड प्रेशर को रेग्यूलेट करना और लाल रक्त कोशिकाएं बनाना और शरीर में से अपशिष्ट पदार्थ निकालना शामिल हैं। हर किडनी में नैफ्रोन नाम के फ़िल्टर करने वाले लगभग दस लाख यूनिट होते हैं। हर नेफ़्रॉन में मुड़ी हुई बहुत सारी छोटी-छोटी रक्त वाहिकाएं होती हैं, जिन्हें ग्लोमेरुली कहते हैं। अर्ध-पारगम्य ग्लोमेरुली के कारण रक्त में से पानी और घुलनशील कचरा मेम्ब्रेन से गुज़र पाता है। ये फ़िल्टर हुआ कचरा शरीर में से मूत्र के रास्ते निकलने के लिए भेज दिया जाता है।

डायबिटीज विकार रक्त प्रवाह में ग्लूकोज़ या ब्लड शुगर के बढ़ जाने से पैदा होता है, जिससे मेम्ब्रेन में क्षति होती है और ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। ब्लड प्रेशर बढ़ने से किडनी बहुत सारा रक्त फ़िल्टर करती है, जिससे नेफ़्रॉन बहुत ज़्यादा काम करते हैं और क्षतिग्रस्त होते हैं। इस स्थिति को डायबिटिक नैफ्रोपैथी कहते हैं। नेफ़्रॉन के ग्लूमैरुल फ़िल्टर अब काम नहीं करते, इसलिए कचरा शरीर से फ़िल्टर होकर बाहर निकलने की बजाय शरीर में जमा होने लगता है और शरीर के लिए ज़रूरी ब्लड प्रोटीन निकल जाते हैं।

इस विकार के लक्षण किडनी के 80 प्रतिशत क्षतिग्रस्त होने से पहले दिखाई नहीं देते। जब वे दिखते हैं, तब उन लक्षणों में सूजन, थकान, भूख न लगना, हाई ब्लड प्रेशर, ज़्यादा मात्रा में पेशाब आना और प्यास ज़्यादा लगना शामिल होते हैं।

जब किडनी 85 से 90 प्रतिशत काम करना बंद कर देती है, तो उसे "आखिरी स्टेज किडनी फेलियर" कहते हैं और किडनी डायलिसिस या ट्रांसप्लांट ज़रूरी हो जाता है। लगभग 10 से 20 प्रतिशत डायबिटीज रोगियों को नैफ्रोपैथी हो जाती है, लेकिन स्वस्थ लाइफ़स्टाइल से इस स्थिति को विकसित होने से रोका जा सकता है या इससे पूरी तरह बचा जा सकता है। इस लाइफ़स्टाइल में ग्लूकोज़ लेवल को नियंत्रित करना, सक्रिय रहना, ब्लड प्रेशर सही बनाए रखना और शरीर का वज़न सही रखना शामिल हैं।