औषधीय विज्ञान

इनके द्वाराByron J. Hoogwerf, MD, Cleveland Clinic
समीक्षा की गई/बदलाव किया गया अग॰ २०२१ | संशोधित सित॰ २०२२

डॉक्टर हज़ारों सालों से लोगों का इलाज कर रहे हैं। चिकित्सीय इलाज का सबसे पहला लिखित वर्णन प्राचीन मिस्र से है और यह 3,500 वर्ष से अधिक पुराना है। इससे पहले भी, शिफागर और तंत्र-मंत्र के द्वारा बीमार और घायलों को जड़ी-बूटी और अन्य इलाज दिए जाते थे। कुछ साधारण फ्रैक्चर और मामूली चोटों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले कुछ उपाय असरदार थे। हालांकि, हाल के समय तक, इनमें से कई चिकित्सीय इलाज काम नहीं करते थे और कुछ सच में हानिकारक थे।

दो सौ साल पहले, कई सारे विकारों के लिए सामान्य इलाज में थोड़ा सा या अधिक खून निकालने के लिए नस को काटना और उल्टी या दस्त कराने के लिए विभिन्न ज़हरीले पदार्थ देना, बीमार शरीर को "शुद्ध करना" शामिल था—ये सभी बीमार या घायल व्यक्ति के लिए खतरनाक थे। लगभग 120 साल पहले, कुछ उपयोगी, लेकिन नुकसान देने वाली, एस्पिरिन और डिजिटेलिस जैसी दवाओं के उल्लेख के साथ, मैन्युअल ने नशाखोरी के इलाज के लिए कोकीन का, अस्थमा के इलाज के लिए आर्सेनिक और तंबाकू के धुएं का और सर्दी-ज़ुकाम के इलाज के लिए सल्फ़्यूरिक एसिड नेज़ल स्प्रे का ज़िक्र किया। डॉक्टरों को लगता था कि वे लोगों की मदद कर रहे हैं। बेशक, तब के डॉक्टरों से यह उम्मीद करना सही नहीं होगा कि हम अब जो जानते हैं, वे तब भी वही जानते हों, हालांकि यह सोचने की बात है कि डॉक्टरों ने ऐसा क्यों सोचा होगा कि तंबाकू के धुएं से अस्थमा के रोगी को फायदा हो सकता है?

डॉक्टरों द्वारा बेअसर (और कभी-कभी हानिकारक) इलाजों की सलाह देने के और लोगों ने उन्हें क्यों स्वीकार किया, इसके कई कारण थे:

  • आमतौर पर, उस समय कोई असरदार वैकल्पिक इलाज नहीं था।

  • डॉक्टर और बीमार लोग अक्सर कुछ न करने के बजाय, कुछ करना पसंद करते हैं।

  • लोगों को डॉक्टर से समस्याओं का हल पाकर सुकून मिलता है।

  • डॉक्टर अक्सर बहुत ज़रूरी सहायता और भरोसा देते हैं।

हालांकि, तब भी डॉक्टर यह नहीं जान सकते थे कि कौन से इलाज काम करते हैं

इलाज और रिकवरी: कारण और प्रभाव?

अगर एक घटना दूसरी से ठीक पहले घटती है, तो स्वाभाविक रूप से लोग ऐसा मान लेते हैं कि पहली घटना दूसरी घटना के कारण घटी है। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति दीवार पर मौजूद कोई भी बटन दबाता है और पास की लिफ़्ट का दरवाज़ा खुल जाता है, तो व्यक्ति स्वाभाविक रूप से मान लेता है कि वह बटन लिफ़्ट को नियंत्रित करता है। घटनाओं के बीच इस तरह के संबंध बनाने की क्षमता मानव के मस्तिष्क का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और दुनिया को हम जिस रूप में देखते-समझते हैं उसके लिए ज़िम्मेदार है। हालांकि, लोग अक्सर कारणात्मक संबंध वहां भी देखते हैं जहां वह मौजूद नहीं होता। यही कारण है कि एथलीट अपने लिए उन "लकी" मोज़े पहनना पसंद कर सकते हैं, जिन्हें पहने हुए उन्होंने कोई बड़ा खेल जीता था या फिर एग्ज़ाम देने के लिए स्टूडेंट अपनी "लकी" पेंसिल का इस्तेमाल करना अच्छा समझ सकता है।

इस तरह की सोच को भी कुछ बेअसर चिकित्सा इलाजों के काम करने से जोड़कर देखा गया था। उदाहरण के लिए, अगर डॉक्टर द्वारा थोड़ा सा खून बहाने के बाद, किसी बीमार व्यक्ति का बुखार मिट गया या तांत्रिक ने किसी विशेष मंत्र का जाप किया, तो लोगों ने स्वाभाविक रूप से मान लिया कि बुखार उनकी वजह से ही मिटा होगा। आराम पाने की उम्मीद रख रहे रोगी के लिए, केवल ठीक होना मायने रखता था। दुर्भाग्य से, प्रारंभिक चिकित्सा पद्धतियों में देखे गए स्पष्ट कारण और प्रभाव संबंध शायद ही कभी सही थे, लेकिन उन पर विश्वास रखना सदियों से बेअसर इलाजों को बनाए रखने के लिए पर्याप्त था। ऐसा क्यों हो रहा था?

लोग अपने-आप ही ठीक हो जाते हैं। “बीमार” निर्जीव वस्तुएं (जैसे कि एक टूटी हुई कुल्हाड़ी या एक फटी कमीज़) जो किसी के द्वारा मरम्मत किए जाने तक ही खराब रहती हैं, इनकी तुलना में शरीर के स्वयं ठीक हो जाने पर या बीमारी की अवधि पूरी होने पर, बीमार लोग अक्सर अपने-आप ठीक हो जाते हैं (या बिना डॉक्टर की ज़रूरत के)। जुकाम एक हफ़्ते में चला जाता है, माइग्रेन का सिरदर्द आम तौर पर एक या दो दिन तक रहता है और फ़ूड पॉइज़निंग के लक्षण 12 घंटे में मिट सकते हैं। बहुत से लोग इलाज के बिना ही, दिल का दौरा या निमोनिया जैसे जानलेवा विकारों से भी ठीक हो जाते हैं। क्रोनिक या बरसों पुरानी बीमारियों (जैसे अस्थमा या सिकल सेल रोग) के लक्षण आते-जाते रहते हैं। इस तरह, भरपूर समय दिए जाने पर कई इलाज असरकारक हो सकते हैं और अपने-आप ठीक होने के समय दिया गया कोई भी इलाज नाटकीय रूप से असरकारक लग सकता है।

ऐसा प्लेसिबो इफ़ेक्ट के कारण भी हो सकता है। अक्सर लोगों को बेहतर महसूस कराने के लिए, इलाज की शक्ति में विश्वास होना ही बहुत होता है। हालांकि, विश्वास किसी अंतर्निहित विकार, जैसे टूटी हुई हड्डी या डायबिटीज को मिटाने का कारण नहीं बन सकता, जो लोग मानते हैं कि वे एक अच्छा, असरदार इलाज प्राप्त कर रहे हैं, वे अक्सर बेहतर महसूस करते हैं। अगर किसी गोली में कोई सक्रिय तत्व न हो और जो कोई लाभ भी न देती हो, जैसे कि "चीनी की गोली" (जिसे प्लेसिबो कहा जाता है), तो उससे भी दर्द, जी मिचलाना, कमज़ोरी और कई अन्य लक्षण कम हो सकते हैं। ऐसे में केवल विश्वास मायने रखता है।

एक आत्म-विश्वासी डॉक्टर द्वारा एक भरोसेमंद, आशावादी व्यक्ति के लिए किया गया एक बेअसर (या यहां तक कि हानिकारक) इलाज भी लक्षणों से राहत दिला सकता है। इस सुधार को प्लेसिबो इफ़ेक्ट कहा जाता है। इस तरह, लोगों को एक ऐसे इलाज से, जिसका रोग पर कोई सीधा असर न पड़ा हो, सच में (केवल नाम के लिए नहीं) लाभ का अनुभव हो सकता है। हाल ही में किए गए शोध से पता चलता है कि कुछ विकारों में प्लेसिबो इफ़ेक्ट जैविक तौर पर भी असर करता है, भले ही वह असर असली बीमारी को लक्षित न कर रहा हो।

इससे क्या फर्क पड़ता है? कुछ लोग तर्क देते हैं कि इलाज लोगों को बेहतर महसूस कराता है या नहीं, केवल यही मायने रखता है। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इलाज वास्तव में “काम करता है” यानी बीमारी की जड़ पर असर करता है या नहीं। अगर लक्षण ही समस्या है, तब यह तर्क सही हो सकता है, जैसे कि रोज़मर्रा के कई तरह के दर्द में या सर्दी-जुकाम जैसी बीमारियों में, जो आम तौर पर अपने-आप ठीक हो जाती हैं। ऐसे मामलों में, डॉक्टर कभी-कभी ऐसे इलाज लिखते हैं जिनका रोग पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है और इसके बजाय, प्लेसिबो इफ़ेक्ट भी कम से कम आंशिक रूप से लक्षणों में आराम दे सकता है। हालांकि, किसी भी खतरनाक या बहुत गंभीर विकार में या जब इलाज के कारण साइड इफ़ेक्ट होने की संभावना हो, तो यह ज़रूरी हो जाता है कि डॉक्टर केवल ऐसे इलाज का सुझाव दें जो वास्तव में काम करता हो। इलाज से मिलने वाले लाभों को इससे होने वाले नुकसानों की तुलना में परखा जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, कई साइड इफ़ेक्ट वाली दवाएँ उन लोगों के लिए ज़रूरी हो सकती हैं जिन्हें कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी है। कैंसर की कुछ दवाएँ गंभीर नुकसान पहुंचा सकती हैं, जैसे कि गुर्दे या दिल पर, लेकिन रोगी इन जोखिमों को अक्सर झेल लेते हैं, क्योंकि दवाओं के विकल्प (इलाज न किए गए कैंसर के प्रभाव) दवा के बुरे असर से भी बदतर होते हैं

डॉक्टर यह कैसे जानते हैं कि क्या काम करता है

चूंकि कुछ डॉक्टरों ने बहुत पहले ही यह महसूस कर लिया था कि लोग अपने-आप ठीक हो सकते हैं, इसलिए उन्होंने स्वाभाविक रूप से यह तुलना करने की कोशिश की कि एक ही बीमारी वाले अलग-अलग लोगों में इलाज करने या इलाज न करने का क्या असर पड़ा। हालांकि, 19वीं शताब्दी के मध्य तक, यह तुलना करना बहुत कठिन था। रोगों को सही से बिल्कुल नहीं समझा गया था, इसलिए यह बताना मुश्किल था कि समान लक्षणों वाले दो या दो से अधिक लोगों को एक ही बीमारी कब हुई।

डॉक्टर जिन शब्दों का इस्तेमाल करते थे वे भी अक्सर पूरी तरह से अलग-अलग बीमारियों के बारे में ही बताते थे। उदाहरण के लिए, 18वीं और 19वीं शताब्दी में “ड्रॉप्सी” का निदान उन लोगों को दिया गया था जिनके पैर सूजे होते थे। आज हम जानते हैं कि सूजन, दिल की धड़कन के अनियमित होने, किडनी के काम न करने या लिवर की गंभीर बीमारी के कारण हो सकती है—ये तीनों ही बिल्कुल अलग-अलग बीमारियां हैं जिनके लिए अलग-अलग इलाज ही काम करते हैं। इसी तरह, कई लोग जिन्हें बुखार था और जो उल्टी भी कर रहे थे, उनमें “पित्त के बुखार (बिलियस फीवर)” का निदान किया गया था। आज हम जानते हैं कि बुखार और उल्टी कई अलग-अलग बीमारियों में भी हो सकते हैं, जैसे टाइफाइड, मलेरिया, एपेंडिसाइटिस और हैपेटाइटिस में।

20वीं शताब्दी की शुरुआत में, जब सटीक, वैज्ञानिक रूप से आधारित निदान आम हो गए थे, केवल तब से ही डॉक्टर प्रभावी ढंग से इलाज का मूल्यांकन करना शुरू कर पाए। हालांकि, उन्हें तब भी यह सोचना पड़ता था कि सबसे बढ़िया इलाज की पहचान कैसे की जाए।

सैंपल साइज़

पहले तो डॉक्टरों ने यह महसूस किया कि उन्हें यह देखना होगा कि एक से अधिक बीमार व्यक्ति इलाज कराने पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं। एक या दो लोगों का ठीक होना (या बीमार होना) एक संयोग हो सकता है। कई लोगों में केवल संयोग से अच्छे नतीजे मिलने की संभावना कम है। जितने ज़्यादा लोगों को इलाज दिया जाएगा (सैंपल साइज़), उनमें देखे गए लाभ या दुष्प्रभाव के सच्चे होने की संभावना भी उतनी ही अधिक होगी।

नियंत्रण समूह

हालांकि, डॉक्टरों को लोगों के एक बड़े समूह में एक नए इलाज के लिए अच्छी प्रतिक्रिया मिल सकती है, तब भी वे यह नहीं जान पाते हैं कि एक समान संख्या में (या अधिक) लोग अपने दम पर ठीक हुए होंगे या किसी अलग इलाज से ज़्यादा बेहतर हुए होंगे। इसलिए, डॉक्टर आमतौर पर उन लोगों के समूह के बीच नतीजों की तुलना करते हैं, जिन्हें एक अध्ययन के तहत इलाज दिया जाता है (इलाज समूह) और एक अन्य समूह (नियंत्रण समूह) जिन्हें

  • एक पुरानी पद्धति से इलाज दिया जाता है

  • डमी इलाज दिया जाता है (एक प्लेसिबो, जैसे कि चीनी की गोली)

  • कोई इलाज नहीं दिया जाता

जिन अध्ययनों में एक नियंत्रण समूह शामिल होता है उन्हें नियंत्रित अध्ययन (कंट्रोल्ड स्टडीज़) कहा जाता है।

समय-सीमा

सबसे पहले, डॉक्टर एक निश्चित बीमारी वाले सभी रोगियों को एक नया इलाज देते हैं और इसके बाद, वे उनके नतीजों की तुलना किसी पहले के समय में (या तो एक ही या अलग-अलग डॉक्टरों द्वारा) इलाज किए गए लोगों के एक नियंत्रण समूह से करते हैं। जिन लोगों ने पहले भी इलाज लिया है उन्हें एक ऐतिहासिक नियंत्रण समूह माना जाता है। उदाहरण के लिए, अगर डॉक्टरों को लगता है कि उनके 80% रोगी एक नया इलाज लेने के बाद मलेरिया से बच गए, जबकि पहले वाले इलाज से केवल 60% ही जीवित रहे थे, तो वे यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यह नया इलाज अधिक प्रभावी है।

पहले के समय से नतीजों की तुलना करने में एक समस्या यह है कि पुराने और नए इलाजों के दौरान, सामान्य चिकित्सा देखभाल में हुई प्रगति से भी इन नतीजों पर असर पड़ सकता है। उदाहरण के लिए, जिन लोगों का इलाज 2021 में किया गया उनके नतीजों की तुलना 1971 में इलाज किए गए लोगों के साथ करना सही नहीं होगा। उदाहरण के लिए, पहले के जमाने में पेप्टिक अल्सर रोग का इलाज दूध और मलाई वाले आहार या सर्जरी द्वारा किया जाता था और बाद में एसिड को ब्लॉक करने वाली दवाओं के साथ और हाल ही में एंटीबायोटिक्स दवाओं के साथ किया जाने लगा। बदलते समय के साथ, इस्तेमाल किए जाने वाले इलाजों की तुलना करने के लिए यह ज़रूरी है कि रोग की प्रक्रिया को समझने में जो बदलाव हुए हैं उन पर गौर किया जाए।

भावी अध्ययन ऐतिहासिक नियंत्रण समूहों से संबंधित समस्याओं से बचने में मदद कर सकते हैं। भावी अध्ययनों में, डॉक्टर ये कोशिश करते हैं कि इलाज समूह और नियंत्रण समूह को एक ही समय में बनाया जाए और जैसे-जैसे इलाज के नतीजे सामने आने लगते हैं वे निरीक्षण करके उन्हें देखते हैं। इलाज और नियंत्रण समूहों में लोगों की प्रासंगिक विशेषताएं एक जैसी होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, अगर परिणाम के तौर पर कैंसर या हृदय रोग से होने वाली मृत्यु का अध्ययन किया जा रहा है, तो प्रत्येक समूह के लोगों की आयु एक जैसी होनी चाहिए, क्योंकि ये रोग वृद्ध लोगों में अधिक आम हैं।

एक समान बातों की तुलना करना

ऐतिहासिक अध्ययनों सहित सभी प्रकार के चिकित्सा अध्ययनों के साथ सबसे बड़ी परेशानी यह है कि इनमें लोगों के एक जैसे समूहों की तुलना की जाती है।

ऐतिहासिक नियंत्रण के पहले उदाहरण में, अगर मलेरिया के लिए नया इलाज प्राप्त करने वाले लोगों के समूह (इलाज समूह) में हल्की बीमारी वाले अधिकांश युवा लोगों को रखा गया था और पहले से इलाज पाने वालों के समूह (नियंत्रण) में गंभीर बीमारी वाले बुज़ुर्गों को रखा गया था, इस बात की बहुत संभावना है कि इलाज समूह के लोगों ने इसलिए बेहतर प्रदर्शन किया, क्योंकि वे युवा और स्वस्थ थे। इससे यह गलतफहमी पैदा हो सकती है कि एक नया इलाज बेहतर काम करता है।

उम्र और बीमारी की गंभीरता के अलावा कई अन्य कारकों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए, जैसे कि

  • जिन लोगों में अध्ययन किया जा रहा है उनका संपूर्ण स्वास्थ्य (डायबिटीज जैसी क्रोनिक बीमारियों वाले या किडनी फेलियर के रोगियों में स्वस्थ लोगों की तुलना में खराब परिणाम आते हैं)

  • डॉक्टर और देखभाल प्रदान करने वाला हॉस्पिटल कौन-सा है (कुछ अधिक कुशल हो सकते हैं और उनमें अन्य की तुलना में बेहतर सुविधाएं मिल सकती हैं)

  • अध्ययन समूहों में शामिल पुरुषों और महिलाओं का प्रतिशत (इलाज के लिए पुरुष और महिलाओं की प्रतिक्रियाओं में अंतर हो सकता है)

  • क्या अध्ययन में आबादी के अलग-अलग लोग शामिल है (इलाज सुरक्षित हो और उन लोगों में अच्छी तरह से काम करें जिनकी अलग-अलग विशेषताएं हैं, जैसे कि विभिन्न जातीयताएं, भौगोलिक स्थान या सामाजिक आर्थिक स्थिति), क्योंकि इलाज उन समूहों में अधिक प्रभावी ढंग से काम कर सकते हैं

डॉक्टरों ने कई अलग-अलग तरीके अपनाए हैं, ताकि यह सुनिश्चित कर सकें कि जिन समूहों की तुलना की जा रही है वे ज़्यादातर एक जैसे हों, हालांकि, इस बारे में दो मुख्य दृष्टिकोण हैं:

  • केस-कंट्रोल स्टडीज़: जितना संभव हो, अधिक से अधिक कारकों (उम्र, लिंग, स्वास्थ्य, आदि) के आधार पर और समूहों के बीच तुलनात्मकता सुनिश्चित करने में सहायता के लिए सांख्यिकीय तकनीकों का इस्तेमाल करके, नए इलाज पाने वाले लोगों (केस) को उन लोगों के साथ सटीक रूप से जोड़ना जो नए इलाज नहीं पाते हैं (नियंत्रण)

  • रैंडमाइज़्ड ट्रायल: अध्ययन शुरू करने से पहले, कोई तय क्रम बनाए बिना, प्रत्येक अध्ययन समूह में लोगों को रखना

केस-कंट्रोल स्टडीज़ काम की लगती हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई डॉक्टर हाई ब्लड प्रेशर (हाइपरटेंशन) के लिए एक नए इलाज का अध्ययन कर रहे हैं और इलाज समूह में एक 42 साल का डायबिटीज रोगी है, तो डॉक्टर 40-साल की उम्र के आस-पास वाले किसी हाई ब्लड प्रेशर और डायबिटीज रोगी को नियंत्रण समूह में रखेंगे। हालांकि, लोगों के बीच इतने अंतर हैं, जिनमें ऐसे अंतर भी शामिल हैं जिनके बारे में डॉक्टर ने सोचा भी नहीं होगा, इसलिए अध्ययन में प्रत्येक व्यक्ति के लिए, जानबूझकर एक सटीक मिलान बनाना लगभग असंभव है।

रैंडमाइज़्ड ट्रायल पूरी तरह से अलग दृष्टिकोण का इस्तेमाल करके, अध्ययन के परिणामों को प्रभावित करने वाले समूहों के बीच अंतर होने के जोखिम को कम करते हैं। समूहों के बीच मिलान सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा तरीका है लॉ ऑफ़ प्रोबेबिलिटी का लाभ उठाना और कोई तय क्रम बनाए बिना (आमतौर पर एक कंप्यूटर प्रोग्राम की सहायता से) ऐसे लोगों को अलग-अलग समूहों में रखना जिनकी बीमारी एक ही हो। समूहों की तुलनीयता तब बढ़ जाती है जब समूहों को आयु, लिंग और अन्य बीमारियों की उपस्थिति जैसे ज्ञात चरों का इस्तेमाल करके मिलान किया जाता है। हालांकि, रैंडमाइज़ेशन का एक विशिष्ट महत्वपूर्ण लाभ यह है कि अध्ययन के परिणाम को प्रभावित करने वाले कारक जो अज्ञात होते हैं (और इसलिए समूहों के बीच जिनका मिलान नहीं किया जा सकता है), हो सकता है कि वे प्रतिभागियों और समूहों के बीच कोई तय क्रम बनाए बिना बंट जाएं। जितना बड़ा समूह होगा, हर समूह के लोगों में समान विशेषताएं होने की उतनी ही अधिक संभावना होगी।

प्रोस्पेक्टिव, रैंडमाइज़्ड स्टडीज़ यह सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा तरीका हैं कि एक जैसी प्रक्रिया पाने वाले समूहों के बीच इलाज या परीक्षण की तुलना की जा रही है।

अन्य कारकों को हटाना

जब डॉक्टर समतुल्य समूह बना लेते हैं, तो उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनमें अध्ययन इलाज के अलावा और कोई भी अंतर न हो। इस तरह, डॉक्टर यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि परिणाम में कोई भी अंतर इलाज के कारण है न कि किसी अन्य कारक, जैसे फ़ॉलो-अप केयर की क्वालिटी या फ्रीक्वेंसी के कारण।

प्लेसिबो इफ़ेक्ट एक अन्य महत्वपूर्ण कारक है। जो लोग जानते हैं कि वे बिना किसी इलाज (या एक पुराने, संभवतः कम असरदार इलाज) के बजाय एक असली, नया इलाज प्राप्त कर रहे हैं, वे अक्सर बेहतर महसूस करने की उम्मीद करते हैं। दूसरी ओर, कुछ लोगों को नए, प्रायोगिक इलाज से अधिक दुष्प्रभावों का अनुभव होने की उम्मीद हो सकती है। दोनों ही मामलों में, ये उम्मीदें इलाज के प्रभावों को ज़्यादा बढ़ा सकती हैं, जिससे यह अपने असल स्वभाव की तुलना में अधिक प्रभावी प्रतीत होता है या इससे अधिक जटिलताएं होती हैं।

ब्लाइंडिंग, जिसे मास्किंग भी कहा जाता है, प्लेसिबो इफ़ेक्ट की समस्याओं को कम करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला उपाय है। ब्लाइंडिंग के दो सामान्य प्रकार हैं: सिंगल और डबल।

  • सिंगल ब्लाइंडिंग में, अध्ययन में शामिल लोगों को यह नहीं पता होता कि उन्हें कोई नया इलाज मिल रहा है या नहीं। यानी, वे इस जानकारी के लिए “ब्लाइंड” होते हैं। ब्लाइंडिंग को आमतौर पर नियंत्रण समूह में शामिल लोगों को एक जैसा दिखने वाला पदार्थ, आमतौर पर एक प्लेसिबो—जिसका कोई चिकित्सीय प्रभाव नहीं होता, देकर पूरा किया जाता है। सिंगल-ब्लाइंडेड स्टडीज़ में, किस-किसको इलाज दिया गया है यह अध्ययन कर्मी को पता होता है, लेकिन प्रतिभागियों को नहीं।

  • डबल ब्लाइंडिंग में, अध्ययन में शामिल लोगों और अध्ययन कर्मी को भी यह नहीं पता होता कि किस अध्ययन प्रतिभागी को कोई नया इलाज मिल रहा है या प्लेसिबो। चूंकि डॉक्टर या नर्स गलती से किसी व्यक्ति को यह बता सकते हैं कि वे क्या इलाज प्राप्त कर रहे हैं और इस प्रकार व्यक्ति को "अनब्लाइंड" कर सकते हैं, इसलिए यह बेहतर है कि सभी शामिल स्वास्थ्य देखभालकर्ताओं को भी यह न बताया जाए कि क्या दिया जा रहा है। डबल ब्लाइंडिंग का एक और कारण यह भी है कि प्लेसिबो इफ़ेक्ट डॉक्टर को भी प्रभावित कर सकता है, जो अनजाने में सोच सकते हैं कि इलाज प्राप्त करने वाला व्यक्ति बिना इलाज प्राप्त करने वाले व्यक्ति से बेहतर कर रहा है, भले ही इलाज के लिए दोनों एक जैसी प्रतिक्रिया दे रहे हों। डबल ब्लाइंडिंग के लिए आमतौर पर यह ज़रूरी है कि अध्ययन से अलग एक व्यक्ति, जैसे कि फ़ार्मासिस्ट, समान दिखने वाले पदार्थ तैयार करें जिन्हें केवल एक विशेष नंबर कोड द्वारा लेबल किया गया हो। यह नंबर कोड अध्ययन पूरा होने के बाद ही हटाया जाता है।

सभी मेडिकल अध्ययनों को डबल-ब्लाइंड नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, दो अलग-अलग सर्जिकल प्रक्रियाओं का अध्ययन करने वाले सर्जन स्पष्ट रूप से यह जानते हैं कि वे कौन सी प्रक्रिया कर रहे हैं (हालांकि प्रक्रियाएं कराने वाले रोगियों को इससे अनजान रखा जा सकता है)। ऐसे मामलों में, डॉक्टर यह सुनिश्चित करते हैं कि इलाज के परिणाम का मूल्यांकन करने वाले लोग ब्लाइंडेड हों यानी उन्हें यह न पता हो कि क्या किया गया है, ताकि वे अनजाने में परिणामों को पक्षपातपूर्ण नज़रिए से न देखें।

अगर किसी बीमारी के लिए प्रभावी इलाज पहले से ही मौजूद है, तो नियंत्रण समूह को केवल एक प्लेसिबो देना अनैतिक हो सकता है। उन स्थितियों में, अन्य अध्ययन डिज़ाइनों का इस्तेमाल करके भी इलाजों का मूल्यांकन किया जा सकता है, जैसा कि निम्नलिखित उदाहरणों में बताया गया है:

  • यह पता लगाने के लिए कि क्या एक नया इलाज किसी मानक इलाज की प्रभावशीलता में कोई असर डालता है, मानक इलाज के साथ-साथ नए जांच इलाज या प्लेसिबो का इस्तेमाल करके परिणामों की तुलना करने के लिए एक अध्ययन किया जा सकता है।

  • मानक इलाज के साथ में प्रभावी होने के लिए जाने गए एक नए इलाज की तुलना करने के लिए, मानक इलाज का इस्तेमाल करने वालों के साथ नए इलाज का इस्तेमाल करने वालों के परिणामों की तुलना करने के लिए एक अध्ययन किया जा सकता है। ब्लाइंडिंग बनाए रखने के लिए अगर आवश्यक हो, तो दोनों इलाज समूहों में प्लेसिबो को जोड़ा जा सकता है।

प्रत्येक दृष्टिकोण में, प्रतिभागियों को हर इलाज के लिए दिए गए पदार्थ एक जैसे दिखने चाहिए और अगर एक डबल-ब्लाइंडेड स्टडी है, तो अध्ययन कर्मियों को भी। अगर इलाज समूह को लाल, कड़वा द्रव दिया जाता है, तो नियंत्रण समूह को भी लाल, कड़वा द्रव मिलना चाहिए। अगर इलाज समूह को इंजेक्शन द्वारा दिया गया एक क्लियर सॉल्युशन दिया जाता है, तो नियंत्रण समूह को भी वैसा ही इंजेक्शन दिया जाना चाहिए।

क्लिनिकल ट्रायल डिज़ाइन का चयन करना

एक बेहतरीन नैदानिक परीक्षण में उपरोक्त सभी तत्व शामिल होते हैं, ताकि वे

  • प्रोस्पेक्टिव हों, यानी इलाज और नियंत्रण समूहों को अध्ययन शुरू होने से पहले एनरोल किया जाता है और समय के साथ उनका फ़ॉलो-अप किया जाता है

  • रैंडमाइज़्ड हों, यानी ट्रायल में शामिल लोगों को, कोई तय क्रम बनाए बिना इलाज समूहों में बांट दिया जाता है

  • प्लेसिबो कंट्रोल्ड हों, यानी ट्रायल में कुछ लोगों को प्लेसिबो (एक निष्क्रिय इलाज) दिया जाता है

  • डबल ब्लाइंडेड हों, यानी न तो परीक्षण में शामिल लोग और न ही परीक्षण करने वाले लोग जानते हैं कि किसे इलाज मिल रहा है और किसे प्लेसिबो

इस डिज़ाइन से इलाज की प्रभावशीलता का स्पष्ट निर्धारण किया जा सकता है। हालांकि, कुछ स्थितियों में, यह ट्रायल डिज़ाइन संभव नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए, बहुत दुर्लभ बीमारियों के साथ, रैंडमाइज़्ड ट्रायल के लिए लोगों को ढूंढना अक्सर कठिन होता है। उन स्थितियों में, रेट्रोस्पेक्टिव केस-कंट्रोल ट्रायल किए जा सकते हैं।

डाइवर्सिटी

परीक्षण के परिणाम वास्तविक दुनिया पर लागू किए जा सकें इसके लिए ज़रूरी है कि परीक्षण प्रतिभागियों में पूरी आबादी के ऐसे प्रतिनिधि शामिल हों जिन्हें वह बीमारी है जिसकी जांच की जा रही है, जिनमें लागू आयु, लिंग, नस्ल, जातीयता, सामाजिक आर्थिक स्थिति और जीवन शैली के लोग शामिल हों। अक्सर अध्ययन प्रतिभागियों को विशेष समूहों तक सीमित करके रखने से, एक जैसे लोगों की अधिक सटीक तुलना करना आसान हो जाता है। हालांकि, ऐसे क्लिनिकल ट्रायल के लिए, जिनके परिणाम एक पूरी आबादी पर सबसे ज़्यादा लागू होते हैं, विविधता के आधार पर प्रतिभागियों को शामिल किया जाता है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में, नस्लीय और जातीय अल्पसंख्यक आबादी का लगभग 40% हिस्सा हैं। ऐसी विविधता के बिना किए गए अध्ययन में, कुछ महत्वपूर्ण कारक छूट सकते हैं। कुछ दवाओं के मामले में, किसी व्यक्ति की जाति और आनुवंशिक पृष्ठभूमि उस दवा की प्रभावशीलता को प्रभावित कर सकती है। उदाहरण के लिए, अफ़्रीकी, एशियाई या मेडिटेरेनियन वंश के पुरुषों में G6PD एंज़ाइम की कमी बहुत आम है और कुछ दवाएँ G6PD की कमी वाले लोगों में हीमोलिटिक एनीमिया को ट्रिगर कर सकती हैं। विविध पृष्ठभूमि के लोगों को शामिल करके, क्लिनिकल ट्रायल दिखा सकते हैं कि क्या इलाज सुरक्षित हैं और विभिन्न समूहों के लोगों के लिए अच्छा काम कर रहे हैं। फिर भी, सामाजिक आर्थिक स्थिति, साक्षरता स्तर, आने-जाने की सुविधा और अध्ययन स्थल का घर से पास होना जैसे कारक, विविधता के आधार पर प्रतिभागियों को शामिल करना मुश्किल बना सकते हैं।